Book Title: Vandaniya Avandaniya
Author(s): Nemichand Banthiya, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 138
________________ एक दृष्टि से देखा जाय, तो दुराचारियों का संघ, विषधर से भी अति भयंकर होता है। विषधर से तो लोग डरते और दूर ही रहते हैं । उसका कोई विश्वास नहीं करता । किन्तु भ्रष्टाचारी वेशधारी और मिथ्या प्रचारक, इस प्रकार का आकर्षण खड़ा करते हैं कि जिससे भोले जीव, मोहित होकर उनके जाल में फँस जाते हैं । जिस प्रकार किंपाक फल- विष - फल में आकर्षक सुगंध, रूप और स्वाद होता है, उसी प्रकार मिथ्याचारियों में भी लुभाने वाला शब्दाडम्बर और आकर्षण होता है, जिससे तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ एवं रागी, द्वेषी तथा स्वार्थी लोग उनके पक्षकार बन जाते हैं । अस्संघ संघ जे भांति, रागेण अहव दोसेण । छेओ वा मुहत्तं पच्छित्तं जायए तेसिं ||१२३|| जो राग या द्वेष से असंघ को संघ कहते हैं, उन्हें छेद प्रायश्चित्त अथवा मुहूर्त्त प्रायश्चित्त आता है ।। १२३ ।। असंघ को संघ कहना मिथ्यात्व है । एक मिथ्यात्व तो अज्ञान के कारण लगता है, किन्तु जो जान बूझकर राग-द्वेष और पक्षव्यामोह में पड़कर, कुसंघ को संघ कहते हैं, वे तो अभिनिवेश मिथ्यात्वी हैं । जिसे अपनी भूल दिखाई दे और उस पाप की शुद्धि करना चाहे, तो उसके लिए प्रायश्चित्त करना पड़ता है । I फूटे हुए अंडे के समान काऊण संघसद्दं अव्ववहारं कुणंति जे केइ | पप्फोडिअसउणि अंडगं व ते हुंति निस्सारा || १२४ || संघ का नाम धरकर जो अव्यवहार (अनुचित व्यवहार) करते हैं, वे पक्षी के फूटे हुए अंडे के समान निःसार हैं ।। १२४ ।। आचार्यश्री कहते हैं कि संघ - वीर- संघ, वर्धमान - संघ, - 120

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