________________
सुधर्म-संघ अथवा जैन संघ का नाम धराकर भी जो दुराचार का
सेवन करते हैं, तो वैसे संघ की दशा पक्षी के फूटे हुए अंडे के समान निःसार, व्यर्थ एवं अर्थ-हीन है । जिस अंडे में जीव नहीं हो, जिसमें से जीव मर चुका हो, वह अंडा निःसार ही होता है, उसी प्रकार जिस समूह में से धर्मरूपी प्राण निकल चुका हो, वह केवल नाममात्र का संघ किस काम का है ? उससे जिनधर्म और उपासकों का कौनसा हित हो सकता है ?
-
फूटा और बिगड़ा हुआ अंडा निःसार ही नहीं होता, उसमें के जीव रहित तरल पदार्थ में दुर्गंध उत्पन्न हो जाती है और वह फेंक देने के योग्य होता है, उसी प्रकार धर्महीन संघ में दुराचार रूप दुर्गंध होती है, अत एव वह त्यागने योग्य होता है । कौए के समान विष्ठा खाने वाले तेसिं बहुमाणं पुण भत्तीए दिंति असणवसणाई | धम्मोति नाऊणं गूथाए तित्तिधंखाणं ||१२५ ||
ऐसे संघ का जो बहुमान करते हैं और धर्म समझकर उन्हें भक्ति पूर्वक आहार तथा वस्त्रादि देते हैं, वे (अधर्म को धर्म मानकर उस प्रकार संतुष्ट होते हैं जिस प्रकार ) कौए विष्ठा खाकर तृप्त होते हैं ।। १२५ ।।
आचार्य श्री लिखते हैं कि ऐसे दुराचारियों के संघ का जो आदर करते हैं, सन्मान देते हैं तथा भक्तिपूर्वक आहारादि से प्रतिलाभते हैं, वे विष्ठा खाकर संतुष्ट होने वाले कौए के समान हैं । कौआ विष्ठा खाकर तृप्त एवं प्रसन्न होता है, उसी प्रकार वे कुसंघ का पक्ष करने वाले, उसकी उपासना करके धर्म मानने वाले, सचमुच अज्ञानी हैं या पक्षपाती हैं। वे अपने अज्ञान या पक्षपात से दुराचार -पाप रूप विष्ठा की उपासना करके, उससे
I
121