________________
जिस प्रकार पुष्प के साथ रहने पर तिल भी पुष्प की गंधवाला हो जाता है, उसी प्रकार जो मनुष्य जिस प्रकार के मनुष्य के साथ मैत्री करता है, वह शीघ्र ही उसके जैसा हो जाता है ।।१०४।। पंचवस्तुक ७३१
कुशीलियों की संगति का प्रभाव समझाने के लिए आचार्यश्री उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । यदि आम और नीम के पेड़ साथ ही लगाये जायें, तो नीम का तो कुछ नहीं बिगड़ता, परंतु आम की हानि हो जाती है । उसकी उत्तमता नष्ट हो जाती है । वह स्वयं भी नीम के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यदि उसका बाह्य रूप नहीं भी पलटे, पर उसकी मधुरता तो कटुता में बदल जाती है। यह कुसंगति का प्रभाव है ।
पुष्प के सहयोग से तिल भी सुगंधित हो जाता है, उसी प्रकार सदाचारियों की संगति से उत्तम गुणों की प्राप्ति होती है ।
सुसंगति से उत्तम गुणों की प्रासि होना उतना सरल नहीं, जितना कुसंगति से दुर्गुणों का । कुसंगति का प्रभाव शीघ्र होता है । उसमें प्रयत्न भी नहीं करना पड़ता है । नीम की कड़वाहट आम में सरलता से-केवल साथ उगाने से ही आ सकती है, किन्तु तिल में पुष्प की सुंगध लाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है । विद्या प्राप्त करने के लिए पंडित की संगति ही पर्याप्त नहीं, विद्यार्थी एवं पंडित का प्रयत्न भी आवश्यक होता है, तभी विद्यार्थी, पंडित बन सकता है। तात्पर्य यह कि कुशीलियों की संगति का दुष्परिणाम सरलता से-बिना परिश्रम के ही आ जाता है ।
शिष्य का प्रश्न सुचिरं पि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणीअउम्मीसो । नहु चयइ [उवेइ] कायभावं पाहल्लगुणेण नियएण ||१०५||
97