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बंध करता है, संसार बढ़ाता है और मायामृषा का सेवन करता है ।।११२।। [उप० माला २२१ गाथा ]
आचार्यश्री कहते हैं कि सूत्रोक्त विधि एवं मर्यादा के विपरीत आचरण करता हुआ जीव, अत्यंत दृढ़ एवं चिकने कर्मों का बंध करता है, जिनका छूटना अत्यंत दुष्कर और परिणाम बड़ा भयानक होता है ।
उत्सूत्राचरण अपने आप में बहुत बड़ा पाप है । माया मृषा के साथ उसकी भयंकरता बहुत अधिक बढ़ जाती है ।
उत्सूत्राचरण का अर्थ है - - सूत्रोल्लिखित विधि के विपरीत आचरण । परमोपकारी सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवान् की आत्महितकारी आज्ञा का उल्लंघन विपरीताचरण है ।
उत्सूत्राचरण विवशता के चलते भी होता है और इच्छापूर्वक भी, सुखशीलियापन से भी होता है और विपरीत एवं विरुद्ध विचारणा से भी । कोई कोई तो सुधारक, क्रांतिकारी एवं नूतनताप्रेमी बनने के लिए भी उत्सूत्राचरण करते हैं और अपने उत्सूत्राचरण को बड़ी इज्जत का काम समझते हैं । इस जमाने के कतिपय लोगों ने उत्सूत्राचारी को सुधारक, युग दृष्टा, सुलझे हुए विचारक आदि कई इल्काब दे दिये हैं ।
विवशता पूर्वक उत्सूत्राचरण होता है, उसका परिमार्जन हो सकता है । वहाँ न तो श्रद्धा की कमी है, न रुचि में अंतर है, मात्र आतंक से उत्पन्न विवशता है । विकट स्थिति के कारण उत्सूत्राचरण का परिमार्जन हो सकता है, किन्तु सुखशीलियापन से इच्छा पूर्वक या कुश्रद्धा, दुर्भावना एवं बागीपन के चलते किया हुआ उत्सूत्राचरण उत्तरोत्तर उग्र होता
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