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सुसाधुओं को इसका पालन अवश्य करना चाहिए और सुज्ञ श्रावकों को ऐसा करने में सहयोग देना चाहिए । जो श्रावक होकर भी शिथिलाचारी एवं कुशीलियों का संभोग चाहते हैं, एकमेक करना चाहते हैं, वे जिनेश्वर भगवंत, उत्तम साधु परंपरा एवं शुद्धाचार की उपेक्षा करते हैं, अवहेलना करते हैं, विराधना करते हैं । आगमकार कहते हैं कि-'कुशीलियों की संगति मत करो' और उपासक कहें कि-'सब मिलकर एक हो जाओ, संभोग असंभोग की बातें छोड़ों', तो यह जिनेश्वर भगवंतों का एवं निग्रंथ प्रवचन का विरोध हुआ या नहीं ? जिनके आचार विचार में ढिलाई है, जो शिथिलाचार युक्त है, वे तो अपनी त्रुटि छुपाने के लिए सुसाधुओं की निंदा ही करते हैं, उन्हें 'घमंडी, अक्कड़, सड़ियल दिमाग, कट्टरपंथी, ढोंगी और न जाने क्या क्या विशेषण देते हैं और निंदा करते हैं । इसमें उनका स्वार्थ है । उन्हें अपने दोषों को छुपाकर लोगों में अपनी प्रतिष्ठा जमाये रखना है। किन्तु उपासकों को तो सोच-समझकर काम करना चाहिए । उन्हें किसी के बहकावे में आकर जिनाज्ञा की विराधना नहीं करनी चाहिए ।
हमने एक पत्र में संपादक जी को इस प्रकार निवेदन करते देखा- "मुनिवर ! अब जमाना देखकर अपनी आचार प्रणाली को कुछ 'उदार बनाइये' । मुझे विचार हुआ-'क्या आचार प्रणाली किसी साधु के घर की चीज है ? जिसे जो चाहे जैसी छोटी, बड़ी, नरम, गरम, लचीली और सख्त बना दे ? जिनकी आगमों पर श्रद्धा है, जो निग्रंथ -प्रवचन और परंपरा पर विश्वास रखते हैं, उन्हें तो आचार प्रणाली को अपनी शक्ति से
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