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सबसे बड़ा मानव का जीवन है । मनुष्य जीता रहेगा, तो संयम का पालन भी कर सकेगा । शास्त्रकारों ने कहा है कि
"जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत्"
वे यह भी कहते हैं कि कठिन परिस्थिति या अशक्त दशा में भी संयम का पुछल्ला पकड़ रखना - हठवाद है, एकांतवाद है, अतिवाद है और हठवाद, एकांतवाद और अतिवाद तो मिथ्यात्व है । अपने बचाव में वे यह भी कहते हैं कि जैनधर्म तो मध्यम मार्ग है । यह एकांत त्याग पर ही आधारित नहीं, किन्तु भोग भी इसमें उपादेय है आदि ।
जिसमें जितनी बुद्धि, विद्वत्ता और शक्ति होती है, वह उतने तर्क और युक्तियाँ पेश कर अपने पक्ष को बलवान बनाने में जोर लगाता है ।
उपरोक्त हीन मनोवृत्ति वाले संयम विघातक पक्ष से, संयम की रक्षा करने के लिए, धर्मप्रिय उत्तर पक्ष की ओर से कहा जाता है कि
भाई! तुम्हारी बातें हीयमान परिणाम से युक्त है । कायरता, सुखशीलियापन, संयम की रुचि का अभाव और सम्यक् श्रद्धान से रहित लगती है । शुद्ध सम्यक्त्वी, संयमप्रिय भव्यात्मा तो इस प्रकार सोचती है कि- यद्यपि शरीर से ही संयम पलता है, किन्तु संयम खोकर शरीर नहीं रखा जाना चाहिए । संयम के लिए शरीर है, शरीर के लिए संयम नहीं है ।
शरीर तिजोरी है और संयम रत्न है । रत्न के लिए तिजोरी है, तिजोरी के लिए रत्न नहीं । यदि रत्न नहीं हो, तो तिजोरी किस लिए? क्या पत्थर, मिट्टी और कंडों के लिए तिजोरी है ?
आन, बान और शान के लिए मनुष्य प्राणदान दे देते हैं ।
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