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सुचिरं पि अच्छमाणो नलथंभो उच्छूवाडमज्झम्मि | कीस न जायइ महुरो जइसंसग्गी पमाणं ते ||१०६ ॥ प्रश्न - वैडूर्य नाम का मणि, दीर्घ काल तक कांचमणि के साथ रहने पर भी अपने प्रधानगुण को छोड़कर कांच रूप नहीं बनता और गन्ने की वाड़ी में दीर्घ काल तक रहा हुआ नलथंभ, मीठा नहीं होता । यदि संसर्ग दोष लगता होता, तो इनमें भी परिवर्तन हो जाता ।। १०५-१०६ । । [ पंचवस्तुक गाथा ७३२-७३३]
आचार्य श्री के संगति का प्रभाव पड़ने विषयक कथन पर शिष्य प्रश्न करता है कि वैडूर्य मणि ( उत्तम जाति का नीलमणि ) कांच के साथ चिरकाल तक रहने पर भी कांच रूप नहीं बनता और गन्ने के खेत में, गन्ने के साथ उत्पन्न नलथंभ (एक प्रकार का घास) मीठा नहीं होता । ये दोनों अपने-अपने गुण नहीं छोड़ते, तब संगति से दोष लगने का सिद्धांत कैसे सिद्ध हो सकता है ?
आचार्य श्री का उत्तर
भावुग अभावुगाणि अ लोए दुविहाए हुंति दव्वाई | वेरुलिओ उत्थ मणी अभावणा अन्नदव्वेहिं ||१७|| जीवो अनाइनिहणो तब्भावणभाविओ य संसारे । खिप्पं सो भाविज्जइ मेलणदोसाणुभावेण ||१०८|| जह नाम महुरसलिलं, सागरसलिलं कमेण संपत्तं । पावेइ लोणभावं मेलणदोसाणुभावेणं || १०९।। [ ओघ नि. ७७७ आ. नि. ११३१]
एवं खु सीलवंतो असीलवंतेहिं मीलिओ संतो । पावइ गुणपरिहाणिं मेलणदोसाणुभावेण ||११||
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