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जितनी हानि होती है, उतनी हीनाचार से नहीं होती । कोई व्यक्ति साध्वाचार का पूर्ण रीति से पालन नहीं करता और कुछ त्रुटि रखता है, तो वह अपनी ही हानि करता है, उससे दूसरों की हानि नहीं होती, किन्तु दुराचारियों की संगति से तो अपनी और दूसरों की भी हानि होती है । दुराचार का अनुमोदन-समर्थन, ऐसा पाप है कि उससे वेशधारियों को प्रोत्साहन मिलता है, उनका बचाव होता है और अनभिज्ञ लोग भी उनका पक्ष करके शुद्धाचार एवं जिनाज्ञा की अवहेलना करते हैं । इससे पवित्र संस्कृति विकार ग्रस्त होती है। ___कई कुशीलिये तो इतने दुःसाहसी होते हैं कि वे कुशील का सेवन एवं जाहिर प्रचार करते भी नहीं लजाते । उनके दुःसाहस को साथियों-संगियों से प्रोत्साहन मिलता है । यह प्रोत्साहन उनकी हिम्मत बढ़ाता है और वे दुराचार में विशेष प्रवृत्त होते हैं । अत एव कुशीलियों की संगति का त्याग करना अत्यावश्यक है । आत्मा और निग्रंथ धर्म के लिए हितकारी है, रक्षक है ।
संगति का प्रभाव अंबस्स य निंबस्स य दोण्हं पि समागयाइं मूलाई ।
संसग्गीए विणट्ठो अंबो निंबत्तणं पत्तो ||१०३|| जो जारिसेण मित्तिं करेइ अचिरेण तारिसो होइ । कुसुमेहिं संवसंता तिला वि तग्गंधिया इंति ||१०४||
जिस प्रकार आम और नीम के वृक्ष के मूल सम्मिलित उगे हों, तो संसर्ग दोष से आम्रवृक्ष नष्ट होकर नीम के रूप में परिणत हो जाता है ।।१०३।। [पंचवस्तुक गाथा ७३६] 1. जैसे-लाईट, माईक, लेट्रीन के उपयोग का उपदेश भी देते हैं।
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