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संग, चोरों के साथ की तरह त्यागकर पृथक् हो जाना चाहिए । अगीतार्थ और दुराचारी साधुओं का सम्पर्क, मन से, वचन से, और काया से-यों तीनों प्रकार से त्यागना आवश्यक है । जिस प्रकार धन लेकर वन में जाने वाले के लिए चोरों का साथ विनाशकारी होता है, उसी प्रकार मोक्षमार्ग के पथिक के लिए, संसार रूपी भयानक वन में अगीतार्थ या उन्मार्ग देशक और दुराचारी साधुओं का साथ, साधना में बाधक होता है। इसलिए ऐसे साधु का साथ, किंपाकफल-विषफल के समान दूर से ही त्याग देना चाहिए । ___ आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी में संयम-प्रियता कितनी थी। इसका खयाल उपरोक्त कथनों से आता है । उस शिथिलाचार प्रधान युग में, चारों ओर फैले हुए दुराचार, जिसमें सामान्य साधु ही नहीं, आचार्य जैसे उच्च पदाधिकारी भी डूबे हुए थे, उनका उपरोक्त उद्घोष बड़ा ही मर्मस्पर्शी है । धर्म प्रिय जन को धर्म की दुर्दशा देखकर खेद होता ही है । जिसके हृदय में अपनी पवित्र संस्कृति के प्रति प्रेम हो, वह ऐसी स्थिति में चुप नहीं रह सकता । आचार्यश्री भी चुप नहीं रह सके। उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया । परिणाम चाहे जो हुआ हो ।
आचार्यश्री के हृदय से निकले हुए कठोर शब्द और अधम उपमाएं, किसी अप्रशस्त उद्देश्य से नहीं निकली । उनके मन में किसी के प्रति द्वेष या वैर भरा हो-ऐसा भी नहीं है । उन्होंने श्रमण धर्म की पवित्रता बनाये रखने के भाव से प्रेरित होकर एवं दुराचारियों से संघ को बचाने के शुभ भाव से अथवा प्रशस्त द्वेष से उपरोक्त शब्दों का प्रयोग किया है । ऐसे शब्दों के
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