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होकर खुद ही भक्षक बन जाय, उसके धन और जीवन को लूट ले, तो यह उसकी महान् अधमता है। आचार्यश्री कहते हैं कि उसी अधम शरणागत- घातक के समान वह आचार्य या गुरु भी है, जो उपासकों एवं जनता से तरण तारण, विशुद्ध संयमी, भगवान् वीर का वंशज एवं गणधर भगवान् का पट्टाधिकारी का सम्मान पाकर भी अपने गच्छ-शिष्यों के सदाचार की रक्षा और दुराचार की रोक नहीं करता और विकार, दोष एवं दुराचार को चलने देता है, तथा
जो स्वयं के एवं शिष्यों के दुराचार को छुपाता, दबाता और बचाव करता है, वह तो उससे भी महापापी है ।
उन्मार्गी आचार्य
उम्मग्गंमि पविट्ठो उम्मग्गपरूवओ सहायकरो । सुविहियजणपडिकूलो आयरिओ वि तहा जाण ॥९७|| ऐसे आचार्य को उन्मार्ग में पहुँचे हुए, उन्मार्ग के प्ररूपक, उन्मार्ग प्ररूपक के सहायक और सुविहित साधुओं- सुसाधुओं के शत्रु जानना चाहिए ।। ९७ ।।
आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य है कि वे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचार का स्वयं दृढ़ता पूर्वक पालन करे और अपने अधीनस्थ साधु-साध्वियों से पालन करवावे । सुविहित साधुओं का समादर करे। संघ की उन्मार्ग से, उन्मार्ग - प्ररूपकों से और उन्मार्ग - सहायकों से रक्षा करें । जो साधु, उन्मार्ग की प्ररूपणा करते हों, उन्हें रोके । उन पर नियंत्रण रखे और नियंत्रण नहीं मानने वाले को संघ से पृथक् कर दे । जिससे मोक्षमार्ग सुरक्षित रहे । आचार्य का यह आवश्यक
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