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जिस दुर्भागी शिष्य पर आचार्य क्रोधित हो जाते हैं, उसे अल्पदोष का भी बड़ा दंड देते हैं ।
प्रिय पात्र के बड़े दोष की उपेक्षा और अप्रिय के अल्प दोष का महादंड देने में आचार्य का न्याय, विवेक एवं समदृष्टि नहीं रहती । वे पक्षपाती बन जाते हैं । कभी कभी तो पक्षपात के वश होकर आचार्य झूठे को संरक्षण दे देते हैं और सच्चे को पृथक् कर देतेनिकाल देते हैं । उसे सच्चाई के पुरस्कार में बहिष्कार का दंड मिल जाता है ।
धूम धाम शब्द का अर्थ आचार्य श्री स्वयं अगली गाथा में बतलाते हैं।
धूमं परांडकोहणसीलं सुविहियपओससंजणियं । नियआणाभंगेण य करंति फग्गुप्पगिट्ठगुणं ||१४|| धामं गारवरसियं नियपूयामाणसमुद्दउक्करिसं । लोगववहारदंसणगव्वेण गुणाण निक्करणं ||१५||
प्रचंड क्रोधी स्वभाव को 'धूम्र' कहते हैं। अपनी आज्ञा के भंग से जो आचार्य, अपने श्रेष्ठ गुण को निःसार कर देते हैं और सुसंयमी संतों पर द्वेष रखते हैं, उन्हें 'धूम युक्त' कहते हैं ।। ९४ ।।
गारव - गर्व में चूर रहना 'धाम' कहलाता है। अपनी पूजा और सत्कार रूपी समुद्र के उत्कर्ष का लोकव्यवहार में प्रदर्शन करके गर्व करना और आत्मगुणों का न्यक्करण (तुच्छ करना) धाम का लक्षण है ।। ९५ ।।
कषाय की तीव्रता धूम और धाम का लक्षण है । धूम में क्रोध कषाय की प्रचण्डता है । द्वेष रूपी अग्नि में चारित्र रूपी गुणों को जलाने से ईर्षा रूप धूआँ उठता है, इससे वह धूम कहलाता है । धाम में मान कषाय की प्रचुरता है । ऋद्धि, रस
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