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उस समय शास्त्र सुनाने वाले उपदेशक साधु को भेंट रूप में द्रव्य और वस्त्र देने की प्रथा थी और वह द्रव्य वे साधु नामधारी वक्ता ग्रहण करते थे। यह प्रथा यति एवं श्री पूज्य वर्ग में देखने में आई थी । वर्तमान में शास्त्र की वाचना प्रारंभ होने के पूर्व वाचक मुनिराज को शास्त्र बहराने की प्रथा है । उस शास्त्र को वही गृहस्थ बहरा सकता है, जिसकी घी की बोली ऊँची हो । बोली का द्रव्य, सात क्षेत्रों में से ज्ञान क्षेत्र में जमा होता है ।
धर्म के साथ परिग्रह का गठबंधन पौद्गलिक परिणति से हुआ । स्वयं साधु, संस्थाओं के लिए धन जोड़ने लगे । विरागी का संसार त्याग परिग्रह त्याग भी उपासकों के परिग्रह संग्रह का कारण बन गया । एक-एक उपकरण चढ़ावें पर चढ़ने लगे । मृत साधु के शव की अंतिम क्रिया भी इस चढ़ावें से नहीं बच सकी । ऊँची बोली के लिए साधु का शव एक-दो-दिन रखना भी प्रारंभ हो गया । चढ़ावे बोलने की प्रथा असुविहित आचरित है, यह भूला दिया गया । कई साधु यह ध्यान रखते हैं कि कहाँ कौन धनवान् है ? उससे किस कार्य में पैसा लगवाना है ? चढ़ावें ऊँचे दर में जाते है, तब कुछ साधु खुश होते हैं, अपनी क्रेडीट मानते हैं, कुछ भाग भी रखवाते हैं । यह सब असंयमी प्रवृत्ति है और मिथ्यात्व बढ़ाने वाली है ।
अप्पावराहट्ठाणे कुव्वंति सदप्पओ महादंडं । तं धूमधामगहियं सप्पुव्व सया विवज्जिज्जा ||९३||
अल्प अपराध के पात्र को जो आचार्य, अभिमानपूर्वक महान् दंड देते हैं, ऐसे धूम धाम गृहित (आडम्बरी) आचार्य का सर्प के समान दूर से ही त्याग कर देना चाहिए ।।९३।।
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