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संयम, चारित्र, संस्कृति एवं उत्तम परंपरा का रक्षक नहीं, साधुता का पोषक नहीं, किन्तु असंयम, चारित्र-हीनता एवं विकृति का रक्षक है । ऐसे आचार्य का त्याग करना ही सुसाधुओं का कर्तव्य है।
असंयमी गच्छ त्याज्य है मूलगुणेहिं विमुक्कं विज्जाकलियं पि लद्धिसंलिद्धं । उत्तमकुले वि जायं निद्धाडिज्जइ तयं गच्छं ||१०||
- गच्छाचार पयन्ना ८७ गाथा जो गच्छ विद्या संपन्न हो, लब्धियुक्त हो और उत्तम कुल में उत्पन्न भी हो, किन्तु वह संयम के मूलगुणों से रहित हो, तो ऐसे गच्छ को त्याग देना चाहिए ।।९।।
साधुता का आधार संयम है, विद्या, लब्धि-चमत्कार, वक्तृत्व कला या लेखन कला आदि नहीं। विद्या, लब्धि और अन्य विशेषताएँ तो असंयमी गृहस्थों, मिथ्यादृष्टियों और कुप्रावचनिकों में भी होती हैं। इन विशेषताओं से कोई निग्रंथ श्रमण नहीं हो सकता । जैन साधु वही हो सकता है जो सम्यक्चारित्र संपन्न हो । साधु में संयम के मूलगुण तो होने ही चाहिए, अवश्य होने चाहिए । बिना मूलगुणों के वह असाधु ही रहता है। जिस गच्छ में संयमहीन साधुओं का अस्तित्व हो, वह गच्छ संयमवान् साधुओं के रहने योग्य नहीं होता । संयमी साधु को ऐसे गच्छ का त्याग कर देना चाहिए, भले ही वह गच्छ विद्या, बुद्धि, कला, लब्धि और अन्य विशेषताओं से युक्त हो ।
वत्थोवगरणपत्ताइ दव्वं नियनिस्सएण संगहियं ।
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