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उम्मग्गठिओसूरी, तिन्निवि मग्गं पणासंति ।।२८।।
(गच्छाचार पइण्णा) जो आचार्य, जिनेन्द्र के मार्ग का सम्यग् रूप से प्रचार करते हैं, वे तीर्थंकर के समान हैं, किन्तु जो आचार्य स्वयं जिनाज्ञा का पालन नहीं करते और दूसरों से नहीं करवाते, वे सत्पुरुषों की श्रेणी में नहीं होकर कापुरुष = कायर हैं । जिनेश्वर भगवान् के । पवित्र मार्ग को दूषित करने वाले आचार्य तीन प्रकार के होते हैं।
यथा
१. जो आचार्य स्वयं आचार भ्रष्ट है ।
२. जो भ्रष्टाचारियों का सुधार नहीं करके उपेक्षा करता है । ३. जो उन्मार्ग का प्रचार और आचरण करता है । ये तीनों प्रकार के आचार्य, भगवान् के पवित्र धर्म को दूषित करते हैं ।
उम्मग्गठिओ इक्कोऽवि, नासए भव्वसत्त संघाए । तं मग्ग मणुसरं, जह कुतारो नरो होइ ।। ३० ।। उम्मग्ग संपद्विआण, साहूण गोयमा ! णूणं । संसारो य अणंतो, होइ य सम्मग्गनासीणं ।। ३१ ।।
जो आचार्य, जिनमार्ग का लोपकर उन्मार्ग में चलते हैं, वे निश्चय ही अनंत संसार परिभ्रमण करते हैं । जिस प्रकार तैरना नहीं जानने वाला नाविक अपने साथ बहुतों को ले डूबता है, उसी प्रकार उल्टे मार्ग पर चलने वाला नायक, अपने साथ बहुतों को उन्मार्ग गामी बना देता है ।
जो उ प्पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव य । सीसवग्गं न चोएइ, तेण आणा विराहिआ || ३९।। जो आचार्य, आलस्य अथवा प्रमाद से या और किसी
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