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गिहिगेहम्मि य जेसिं ते किणिणो जाण न हु मुणिणो ||९१|| जो मुनि अपनी निश्रा के गृहस्थों के घरों में वस्त्र, पात्र, उपकरणादि रखते हैं या द्रव्य जमा रखते हैं, उन्हें मुनि नहीं, किन्तु किणी (किणी फोड़ा=गुमड़ा अर्थात् चारित्र रूपी शरीर में निःसार एवं दुःखदायक बना हुआ अंग) जानना चाहिए ।।९१।। ___ संग्रहखोर, साधु नहीं हो सकता । जिसके पास इतनी सामग्री हो, कि जो उसके काम में नहीं आये, उससे उठाई नहीं जा सके, मोटरे साथ में रखनी पड़े या गृहस्थ के यहाँ रखनी पड़े, वह तो परिग्रही गृहस्थ है । ___ उसे अपरिग्रही साधु मानना असत्य है। उसके शरीर पर साधुता का वेश व्यर्थ है । जिस प्रकार शरीर में उत्पन्न फोड़ा, शरीर के हित में नहीं है । उससे शरीर को पीड़ा होती है। शरीर में से फोड़े को हटाने से ही सुख प्राप्त होता है, उसी प्रकार चारित्र रूपी शरीर में परिग्रह फोड़े के समान है । इससे संयम रूपी शरीर दुःखी होता है । अत एव संग्रहखोर वेशधारी को साधु नहीं मानना चाहिए । जे पवयणं भणित्ता गिहिपुरओ कंखए धणं ताओ । ते णाणविक्किणो पुण मिच्छत्तपरा न ते मुणिणो
॥९२।। जो साधु, गृहस्थों को शास्त्र सुनाकर उसके बदले में उनसे धन की इच्छा रखते हैं, उन्हें ज्ञान का विक्रय करने वाले और मिथ्यादृष्टि जैसे जानना चाहिए, किन्तु उन्हें मुनि नहीं मानना चाहिए ।।१२।।
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