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सज्जन व्यक्ति दुष्ट प्रकृति वाले अनार्य का त्याग करते हैं । कहा है कि-मर्द की गर्द में रहना, किन्तु उस आचार्य की छाया में भी नहीं रहना । ऐसा वही आत्मा कर सकती है, जिसमें धर्म प्रियता के साथ आत्मबल भी हो । कायर व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकता ।
आचार्य भगवंत, गण की पूर्ण व्यवस्था और सार-संभाल रखते हैं । संघ के रक्षक हैं । यदि संघ-साधु साध्वी उनकी आज्ञानुसार नहीं चले, अविनीत, असंयमी और उइंड बन जाय, तो आचार्य उन्हें छोड़कर अलग भी हो जाते हैं (ठाणांग ५-२) उनके सिर पर संघ की पूर्ण जवाबदारी है । संघ में ज्ञान, दर्शन
और चारित्र की वृद्धि होती है, उत्थान होता है तो उससे आचार्य की शोभा है । यदि संघ में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की हीनता हो, शिथिलाचार और स्वच्छन्दता बढ़ती हो, मर्यादा का भंग बेरोकटोक होता हो, तो उस आचार्य की शोभा नहीं, किन्तु अपकीर्ति है । उनके प्रभाव में खामी है। 'गच्छाचार पयन्ना' में कहा है कि
जीहाए विलिहितो, न भद्दओ सारणा जहिँ नत्थि । डंडेणवि ताडतो, स भद्दओ सारणा जत्थ ।।१७।।
मुंह से मीठा बोलता हुआ जो आचार्य, गच्छ के आचार की रक्षा नहीं कर सकता वह अपने गच्छ का हितकर्ता नहीं, किन्तु अहितकर्ता है और जो आचार्य मीठा नहीं बोलता, किन्तु ताड़ना करता हुआ भी गच्छ के आचार की रक्षा करता है, वह आचार्य कल्याण रूप है-आनंद दायक है ।
तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइक्कमंतो सो, कापुरिसो न सप्पुरिसो ।।२७।। भट्ठायारो सूरी, भट्ठायाराणुविक्खओ सूरी ।
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