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हीनतम दशा हो गयी, इन निग्रंथ एवं सद्गुरु नामधारियों की । कितना पतन हुआ है - इनका ।
सुसाधुओं के द्वेषी
सुविहियसाहुप ओसं, तप्पासे धम्मकम्मपडिसेहं । सासणपभावणार, मच्छरलउडाइकलिकरणं ॥ ६४ ॥
वे कुसाधु, सुविहित (शुद्धाचारी). साधुओं पर द्वेष करते हैं और साधुओं के समीप धर्मकर्म का निषेध करते हैं। सुसाधुओं द्वारा जिन शासन की प्रभावना होती हो, तो उसमें भी क्लेश खड़ा करते हैं और लकड़ी आदि से प्रहार भी करते हैं ।। ६४ ।।
जिस प्रकार दुराचारिणी को सदाचारिणी नहीं सुहाती, वह उसे देख कर जलती है, उससे द्वेष करती है, उसका अनिष्ट चाहती है, उसी प्रकार कुसाधु को भी सुसाधु नहीं सुहाते । वे उन सुसाधुओं से द्वेष करते हैं, उनकी निन्दा करते हैं और उनका अपमान करना चाहते हैं । वे अपने बचाव में कहा करते हैं कि
'अभी पंचमकाल है । पतनोन्मुखी समय है । इसमें शुद्ध धर्म और चरण करण नहीं रहता । चौथे आरे का आंचार, पांचवें आरे में नहीं चलता। जिस प्रकार जिनकल्प का विच्छेद है, उसी प्रकार शुद्ध स्थविर कल्प का भी लोप है । अब तो जैसा पले वैसा पालना और भगवान् के शासन को चलाते रहना, यही ठीक है । जो शुद्धाचारी कहलाते हैं, वे तो ढ़ोंगी हैं, कपटी हैं। हम ढ़ोग करना नहीं जानते, जैसा पले वैसा पालते हैं" इत्यादि ।
आचार्य श्री कहते हैं कि वे असाधु लोग, सुसाधुओं द्वारा की जाती हुई धर्म प्रभावना भी सहन नहीं करते और उनके सामने व्यर्थ के झगड़े खड़े कर के वातावरण को कलुषित बना देते हैं और अवसर पाकर मारपीट तक करते हैं ।
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