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जाय ।। ८८ ।।
आचार्य श्री तीर्थंकर भगवान् के वंशज हैं, पट्टाधिकारी धर्मराज हैं, धार्मिक शासन के शासक है, धर्मरथ के सारथी है । जिनधर्म का सर्वोपरि नेता, संचालक, रक्षक और पोषक होता है । यदि ऐसी सर्वोच्च सत्ता ही अनाचारी बन जाय, तो शेष रहे ही क्या ? और उस संघ का उत्थान हो ही कैसे ? कायर, अशक्त और दुर्बल नायक के अधिपत्य में संघ की उन्नति नहीं, पतन होता है । दुराचार फैलता है ।
जिस सेना का सेनापति ढीला हो, निर्बल हो, स्वयं अपने पद के गौरव का निर्वाह नहीं कर सकता हो, उनकी सेना भी निर्बल, सुखशील और अनुशासन हीन होती है । वह न अपनी रक्षा कर सकती है, न अपना दायित्व निभा सकती है और न विजय की ओर आगे कदम बढ़ा सकती है । उसका एक मात्र काम सफलता पूर्वक पीछे हट करना होता है । हां, वह बातों के बड़े बनाकर जनता को भुलावा दे सकता है ।
योग्य सेनापति, कायर और अनुशासन हीन सैनिकों की छटनी करता है, योग्य सैनिकों को प्रोत्साहन देकर साहस बढ़ाता है और शक्ति बढ़ाकर विजयी होता है । इसी प्रकार पंचाचार का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले आचार्य, संघ को शक्तिशाली बनाते हैं ।
दुराचारियों को कूड़े कचरे की तरह बाहर निकाल फेंकते हैं और संयमशील साधुओं को अनुशासन बद्ध कर के धर्म की ज्योत जगाते हैं ।
आचार्यश्री कहते हैं कि अयोग्य, अनाचारी एवं सत्वहीन
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