________________
मुनि समझे ।।
स्थानांग सूत्र स्थान ५ और ९ में संयम में दोष लगाने वाले, दोष लगने पर शुद्धि नहीं करने वाले, मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, आचार्यादि के विरोधी, संघ विरोधी, ज्ञान, दर्शन
और चारित्र के प्रतिकूल आचरण करने वाले का संभोग त्याग देने का विधान है।
निशीथ उ० १३ सूत्र ४६ इस प्रकार है। जे भिक्खू पासत्थं वंदइ, वंदंतं वा साइज्जइ ।।४६।। जे भिक्खू पासत्थं पसंसइ, पसंसंतं वा साइज्जइ ।।४७।।
अर्थात् - जो भिक्षु, पार्श्वस्थ (=ज्ञान, दर्शन, चारित्र के पास रहकर भी उनका पालन नहीं करने वाला) को वंदना करे और वंदना करने वाले को अच्छा जाने, जो पार्श्वस्थ की प्रशंसा करे और प्रशंसा करने वाले को अच्छा जाने, तो वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
उपरोक्त पाठ के बाद कुँशील, अवसन्न, संसक्त, नैत्यिक, काथिक (कथावाचक) पासणिय (मनोरम दृश्य देखने वाला) ममत्वी और सम्प्रसारिक (मिथ्यात्व या असंयम का प्रचार करने वाला) के विषय में भी वैसे ही दो दो सूत्र (सूत्र ६३ तक) दिये गये हैं। इन सबको वंदना करने, इनकी प्रशंसा करने को प्रायश्चित्त योग्य बतलाया है।
निशीथ उ० १५ सूत्र ७७ से ८६ तक पासत्थादि को आहारादि देने और उनसे लेने को प्रायश्चित्त योग्य बताया है ।
इस प्रकार असंयमियों की संगति का त्याग करने का आगमिक विधान है । उत्तराध्ययन सूत्र अ० १७ गाथा २० में स्पष्ट लिखा है कि
76
-