________________
जिस गच्छ में साधु भी संयम हीन दुराचारी हों और आचार्य भी कुमार्ग-गामी हों, तो ऐसे गच्छ को श्वपाक/चाण्डाल कुल की तरह त्याग देना चाहिए ।।८६।।
जिस प्रकार चाण्डालों के बास-मुहल्ले में रहा हुआ निर्मल जल का कुण्ड तजनीय होता है, उसी प्रकार संयमहीन गच्छ भी त्याज्य होता है । सुसाधुओं को ऐसे गच्छ की संगति, मन, वचन और काया ऐसे तीनों योग से त्याग देनी चाहिए ।।८७।।
जिस प्रकार प्राण रहित शरीर व्यर्थ है। उसे वस्त्राभूषण से सजा कर रखने से कोई लाभ नहीं है । उल्टा दुर्गन्ध और बीमारी फैलने का भय रहता है, उसी प्रकार संयम रहित वेशधारियों के समूह से भी कोई लाभ नहीं है । उनके संसर्ग से चरित्र हीनता फैलती है। पवित्र धर्म निंदित बनता है और उपासकों की धर्म पर से श्रद्धा उठ जाती है । इसलिए आगम आज्ञा का पालन करने के लिए, शुद्ध साधुता की परंपरा बचाने के लिए और उपासकों को सन्मार्ग पर स्थिर रखने के लिए, कुशीलियों का संसर्ग त्यागना ही चाहिए । आचार्यश्री ने संयमहीन कुशीलियों का संग त्याग करने का जो विधान किया है, वह आगमों से सर्वथा अनुकूल है । सूयगडांग सूत्र श्रु० १ अ० ९ गाथा २८ में कहा है कि
अकुसीले सया भिक्खू, णेव संसग्गिय भए । सुहरूवा तत्थुवसग्गा, पडिबुज्झेज्ज ते विउ ।।
अर्थात् – साधु, सदैव अकुशील-शुद्धाचारी रहे और कुशीलियों की संगति भी नहीं करे । क्योंकि कुशीलियों की संगति से संयम में सुख भोग की कामना रूप उपसर्ग रहता है । इस बात को विद्वान्
-
75