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उनके व्यवहार से तो ऐसा लगता है कि वे धर्म-पोषक संतों और धर्म - शोषक वेशविडम्बकों को एक समान मानते हैं। दोनों ओर समान भक्ति प्रदर्शित करने का तो यही अर्थ है ।
कुगुरुओं का झूठा बचाव
ते लोयाणं पुरओ वयंति एवं खु किं करिस्सामो । सामग्गी अभावाओ वक्कजडाणं पुणो कालो ॥७७॥ दूसमकाले दुलहो, विहिमग्गो तंमि चेव कीरंते । यइ तित्थुच्छेओ तम्हा समए पवत्तव्वं ||७८|| पुव्वं पवयणभणिया विहिपुण्णा साहुसावगा कत्थ ? | जम्हा ते सिवगमणा संपइ मुक्खस्स विच्छेए ||७९|| धिइसंघयणबलाइ हाणी इह जिणवरेहिं निद्दिट्ठा । को भेओ सुहअसुहाण केसिंचिय कुग्गही एसो ||८०|| बहुजणपवित्तिमित्तं लोयपवाहेण कज्जर धम्मो । जइ निम्मलं मणं चिय तो सव्वत्थावि पुण्णफलं ||८१|| वे गुरु अपने बचाव में लोगों के सामने इस प्रकार कहते हैं कि
हम क्या करें, इस काल में सामग्री का अभाव है और वक्रजड़ता व्याप रही है । इस दुषमकाल में विधिमार्ग (विधि के अनुसार चारित्र का पालन ) दुर्लभ हो गया है । यदि विधिमार्ग का ही आग्रह किया जाय, तो धर्मतीर्थ का विच्छेद हो जायगा, इसलिए समय के अनुसार चलते हैं ।।७७-७८ ।।
पूर्व के महर्षियों के कहे हुए और आगमों में बताये अनुसार विधिमार्ग का पूर्ण रूप से पालन करने वाले साधु और श्रावक अभी कहां हैं ? पूर्वकाल में तो वे विधिमार्ग का पालन करके
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