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खीराज्य कय सिंगारा अज्जा सभासु पुरओट्ठिया कयकडक्खा | अहवा भोयणवेलासु इत्थीरज्जं तं गच्छं ।।७३||
शृंगार की हुई और कटाक्ष करने वाली साध्वियों, साधुओं की सभा में आगे बैठती है, अथवा भोजन के समय आगे बैठती है । वह स्त्रीराज्य है, किन्तु गच्छ नहीं है ।।७३।। शृंगार की भावना ही विकार युक्त है । केवल रंगीन वस्त्र, आभूषण और पुष्पादि धारण ही शृंगार नहीं है, केशों का ढंग से रखना, वस्त्रों को उज्ज्वल रखना, आँखों में अकारण काजल या सुरमा लगाना और अंगों को धोकर निर्मल बनाते रहना भी शृंगार है । स्थानांग ठा. ४-४-३७४ में केश और वस्त्र को भी अलंकार माना है। आगमकार तो कहते हैं कि
विभुसावत्तियं भिक्खू, कम्मंबंधई चिक्कणं ।
संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।।६६।। (दशवै० ६) किन्तु इस ओर उनका ध्यान नहीं है । शोभित रहने की रुचि से वे आगम की विराधना करते हुए भी नहीं रुकते । कटाक्ष और स्त्रीराज के प्रसंग की पुनरावृत्ति भी कहीं कहीं देखने में आयी है। साध्वियाँ साधुओं के भोजन के समय उपस्थित रहने की प्रथा तेरापंथ में तो है । साध्वियों का साधुओं के साथ अधिक सम्पर्क और एकान्त में मिलने आदि की प्रवृत्ति कई स्थानों पर दिखाई दी और इसके दुष्परिणाम की घटनाएं भी समाज के सामने आयी । अत एव इस
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