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यक्षादि के पूजक जक्खाइ गुत्तदेवयपूया पूयावणाइ मिच्छत्तं । सम्मत्ताइनिसेहे तेसिं मुल्लेणं वा दाणं ||७||
वे यक्षादि व गोत्रदेव की पूजा करते-कराते और अनेक प्रकार के मिथ्यात्व का सेवन करते थे । वे सम्यक्त्वादि का निषेध करते हैं और मूल्य लेकर (यक्षादि देव देवी की) बिक्री करते हैं ।।७०।।
उस समय के साधु, केवल जिनोपासक ही नहीं रहे थे, वे यक्षोपासक भी बन गये थे । स्वार्थ ने उन्हें मिथ्यात्वोपासक एवं मिथ्यात्वी भी बना डाला था । इतना ही नहीं, वे सम्यक्त्व, विरति आदि का भी निषेध करते थे और यक्षादि की प्रतिमाओं की बिक्री भी करने लग गये थे ।
लगता है कि वर्तमान समय में जो हो रहा है, वह नया नहीं, किन्तु उस मध्यकाल की पुनरावृत्ति हो रही है । यक्षादि देव तो नहीं, किन्तु समाधि वंदना करवाने वाले और बुद्धादि के प्रशंसक अब पैदा हुए हैं । वे भगवान् महावीर.से उनकी समानता बताने वाले हैं । उनके द्वारा मिथ्यात्व की प्रशंसा और सम्यक्त्व तथा सर्व विरति (दीक्षा) के प्रति उपेक्षा प्रकट हुई है । वे त्याग की शक्ति तोड़कर भोगासक्ति बढ़ाने की प्रेरणा करते हैं ।
समाधि सर्जक नंदीबलिपीढकरणं, हीणायाराण मयनियगुरुणं । 1. उस समय की यक्षादि की पूजना का परिणाम ही बढ़ते-बढ़ते यक्षादि के पृथक्-पृथक् भव्यातिभव्य मंदिर बनाने तक पहुँच गया है। भविष्य में न मालुम क्या होया? वर्तमान में कुछ साधु गांधी, ईशु, आदि के साथ महावीर की तुलना करवाकर शासन की अवहेलना का पाप अपने पर ले रहे हैं।
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