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कौन कर सकता है ? साधु, दिनरात वहीं रहता है । उसे वेतन देने की भी आवश्यकता नहीं रहती। साधु स्वयं भी भक्त है, सो पूजा आदि भी अच्छी तरह उत्साह पूर्वक करता है। साधु के रहने से मंदिर आबाद भी रहता है । भक्तगण आते जाते रहते हैं। लोगों को प्रेरणा देकर धर्म में जोड़े रखने का प्रयत्न भी साधु करते हैं । इस प्रकार चैत्यवास के अनेक लाभ उपासकों ने देखे होंगे । ये लाभ बताकर ही चैत्यवासियों ने स्थायी अड्डा जमाया होगा और संघ ने भी स्वीकार किया होगा । १. चैत्य में निवास करने की साधुओं की उस प्रथा में
लाभ देखने वाले की दृष्टि में लाभ तो बहुत दिखाई
देता है, किन्तु उसमें रही हुई हानि दिखाई नहीं देती। २. जिन्हें लाभ भी दिखाई देता है और हानि भी । वे हानि
की उपेक्षा करके लाभ के पक्ष में मिल जाते हैं ।
तात्कालिक वातावरण उन्हें उस पक्ष में धकेल देता है । ३. जिन्हें हानि ही हानि दिखाई देती है और वे विरोध में
खड़े हो जाते हैं। ४. जो हानि लाभ दोनों को देखकर तटस्थ रह जाते हैं।
वे आरंभादि सावध क्रिया के कारण समर्थन भी नहीं करते और विपक्ष में मिलने से बचने तथा शुभ भाव
का निमित्त मानकर निषेध भी नहीं करते । इस प्रकार समर्थकों के बल से वातावरण की अनुकूलता पाकर कोई भी नई प्रवृत्ति, किसी वर्ग विशेष में स्थान पा लेती
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