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है । तटस्थ वर्ग की उपेक्षा से विरोधी पक्ष के विरोध का भी कोई अधिक प्रभाव नहीं होता और समर्थक वर्ग, अपनी नई प्रवृत्ति में सफल होता है । फिर तो वह प्रवृत्ति चल ही पड़ती है । इसी प्रकार वर्तमान में ध्वनि-विस्तारक यंत्र, मिथ्या प्रचार, लेट्रीन का, चेयर का उपयोग आदि कई प्रवृत्तियाँ शुरू हो गयी है ।
चैत्यवास के प्रारम्भ में भी यह किसी ने नहीं सोचा होगा कि इसका निमित्त पाकर साधु, अपनी साधना भूला देगा और निवृत्ति मार्ग एवं निरवद्य जीवन भुलाकर सावध प्रवृत्ति अपना लेगा तथा चैत्यवासी होकर स्वयं पुजारी बन जायगा । साधना के शुद्ध मार्ग का भी उदय-ग्रस्त जीव, दुरुपयोग कर लेते हैं, तो पौद्गलिक अवलम्बन का दुरुपयोग होना तो सहज एवं सरल ही है । वे साधु नवकोटि विहार करने वाले भगवान् महावीर के निग्रंथ नहीं रह कर मंदिर में रहने वाले चैत्यवासी बन गये । वे निरारंभी से सारंभी और निष्परिगृही से सपरिगृही हो गये । वे निरवद्य जीवन खो बैठे।
इस पतन के साथ ही उसमें बेईमानी भी आ गयी । वह देव गुरु और धर्म के नाम पर संग्रह किये हुए धन-देव-द्रव्य का भी उपभोग करने लग गया । सभी तो ऐसे नहीं होंगे, किन्तु एक बहुत बड़ा भाग इस स्थिति में आ गया । __कुछ धर्मज्ञ साधु थे उनकी दृष्टि में यह स्थिति खटकी । उन्होंने दबी जबान से कानाफुसी की । किसी ने आवाज उठाई, तो उसका जीना दुभर हो गया । श्री हरिभद्रसूरिजी को यह स्थिति विशेष खटकी । उन्होंने आवाज उठाई । इस के बाद ऐसी ही
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