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को क्षति पहुँचाने वाले हैं । इनके मन में भाई का स्नेह तो है, परन्तु धर्म की उत्तम मर्यादा के प्रति उपेक्षा है । अत एव धर्मप्रिय ब्रह्मदेव के लिए वे तीनों पुत्र भी त्याज्य रहे । उनकी कुल एवं धर्म परम्परा का निर्वाहक तो शेष एक पुत्र ही रहा । वह उनकी समस्त सम्पत्ति का पूर्ण रूप से उत्तराधिकारी रहा ।
निर्ग्रन्थ परम्परा भी ऐसी ही है । स्वयं भगवान् महावीर ने वैचारिक मलिनता के कारण अपने जमाली नाम के शिष्य को निह्नव घोषित कर दिया और सैकड़ों साधुओं के साथ वह पृथक् हो गया । सिद्धांत का भोग देकर सम्बन्ध बनाये रखना, निरी कायरता है, या आस्था में न्यूनता है । आज तो बहिष्कृतों और प्रत्यनिकों के साथ प्रत्यक्ष ही सम्बन्ध रखकर जाहिर रूप से परम्परा एवं आगमिक विधानों को कुचला जा रहा है । आचार्यश्री के उपरोक्त उदाहरण से उनकी स्थिति स्पष्ट हो रही है । [गु.त.वि.नि.गाथा १२७] .
[दशवैकालिक टीका में पुष्पमाला एवं चंडाल के कूप का दृष्टांत देकर ऐसे कुगुरुओं के उपदेश सुनने का भी निषेध किया
वह दुर्लभबोधि है परिवारपूयहेऊ, पासत्थाणं च आणुवित्तीए । जो न कहइ सुद्धधम्म, तं दुल्लहबोहियं जाण ||२४|| ___अपना परिवार-समूह, पूजनीय-प्रतिष्ठित होने के कारण
और पार्श्वस्थों की अनुवर्तना (अनुकूलता का विचार होने) से जो साधु शुद्ध मार्ग का उपदेश नहीं करता, उसे दुर्लभबोधि जानना चाहिए ।।२४।। 12