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होते हैं। पाठकों को वह सर्वश्रुत कथा तो याद ही होगी-जिसमें एक श्रेष्ठी पुत्र ने विष्ठा के स्थान पर पड़ा हुआ मीठा बेर उठाकर चुपचाप खा लिया था । इसकी फजिहत अब तक व्याख्यानों में सुनने में आती है। ___ यदि इस उदाहरण और उपदेश का मर्म उपासक वर्ग समझ जाय, तो शिथिलाचार नाम शेष होते देर नहीं लगे । पार्श्वस्थादि वेशधारी असंयतियों की अवंदनीयता को विशेष रूप से पुनः स्पष्ट करने के लिए आचार्यश्री दूसरा उदाहरण उपस्थित करते हैं। चाण्डाल और उसके साथी के
समान पक्कण कुले वसंतो सओणीपारो वि गरहिओ होइ । इह गरहिया सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं ||२३|| ___ पक्कण-निन्दित-गर्हित-चाण्डाल कुल में रहने वाला, सओणीपार चौदह विद्या में पारंगत, शिष्य भी निन्दनीय होता है, उसी प्रकार कुशीलियों में रहने वाले सुसाधु भी निन्द्य हैं ।।२३।।
'शकुनिपारक' का अर्थ किया है-६अंग, ४वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र, इन चौदह विद्या स्थानों में पारंगत बना हुआ। इसका दृष्टान्त इस प्रकार है । ___ एक निष्ठावान् ब्राह्मण के ५ पुत्र थे। वे सभी शकुनिपरक थे। एक पुत्र का किसी दासी के साथ अनुचित सम्बन्ध हो गया। वह दासी मदिरा पीती थी और मांस भक्षण भी करती थी। उस