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है, वह दुर्लभबोधि नहीं होता । श्री गर्गाचार्य में न तो पक्षपात था, न पद-लोलुपता थी । उनकी आत्मा में धर्म का प्रेम पूर्णरूप से विद्यमान था । इसीसे वे पद, प्रतिष्ठा और विशाल शिष्य समूह का त्यागकर एकाकी विचरने लगे । उनका पूरा शिष्य समूह कुशीलिया बन चुका था ।
(वीरशासन में आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी का समय अनाचार प्रधान था । श्रमणवर्ग में अनाचार व्यापक रूप ले चुका था। आचार्यश्री का हृदय इस स्थिति से दुःखी था। उन्होंने उपासक वर्ग को बोध देने के लिए 'संबोध प्रकरण' ग्रन्थ में 'कुगुरु गुर्वाभास' नामक अधिकार रचकर कुशीलिया साधु का स्वरूप विस्तार के साथ बताया । प्रत्येक पाठक को इसका मनन पूर्वक पठन करना चाहिए और वर्तमान दशा से तुलना करके हेयोपादेय का विचार करना चाहिए तथा वीरशासन के प्रति अपना कर्तव्य निर्धारित करना चाहिए । प्रत्येक पाठक को इस प्रकरण के दर्पण में अपने आपको अच्छी तरह देखना चाहिए कि कहीं मैं प्रवाह में बहकर अनाचार को प्रोत्साहन देता हुआ भगवान् महावीर के धर्मशासन की विराधना में सहायक तो नहीं हो रहा हूँ। उपासक भी धर्म के उत्थान और पतन में सहायक होता है । उसका मत, उसका समर्थन और उसका थोड़ा भी सहयोग, मूल्यवान् होता है । यह प्रकरण अपना कर्त्तव्य स्थिर करने में पाठकों का मार्गदर्शक एवं सहायक होगा-सम्पादक)