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उनमें संयम के भाव कहाँ है ? आचार्य श्री ने उन्हें 'धर्म पिशाच' कहा, यह ठीक ही है । क्योंकि धर्म तो नरोत्तम, मंगलमय, उत्तम एवं शरणभूत बनाता है, किन्तु धर्म के आवरण में रहकर अधर्म सेवन करते हुए जो स्वार्थ साधन करते हैं, वे प्रत्यक्ष पिशाच नहीं, किन्तु धर्म पिशाच हैं। उनसे धर्म का भक्षण और अधर्म का रक्षण होता है ।
आज्ञा भंग का परिणाम रण्णो आणाभंगे, इक्कुच्चिय होइ निग्गहो लोए । सवण्णूआणभंगे, अणंतसो निग्गहं लहई [होई] ||४४||
लोक में राजाज्ञा का उल्लंघन करने पर एक ही बार दण्ड भोगना पड़ता है, किन्तु सर्वज्ञ भगवान् की आज्ञा का भंग करने पर अनन्तवार दुःख भोगना पड़ता है ।।४४।।
राजा तो स्वयं दण्ड देता है या राज व्यवस्था-नियम से, न्यायाधिकारी दंड देते हैं । सद्भाग्य से कभी राजदण्ड से बचाव भी हो सकता है, किन्तु सर्वज्ञ की आज्ञा का भंग करने पर बचाव नहीं होता और उसका दण्ड भी कोई दूसरा नहीं देता । वह कषायात्मा ही-उसकी विकारी आत्मा ही, आज्ञाभंग एवं दांभिकता के पाप से, अपनी आत्मा को कर्म के वैसे बन्धनों में जकड़ कर अनन्त दुःख का सर्जन कर लेती है ।
विष तुल्य जत्थ य मुणिणो कय-विक्कयाई कुव्वंति निच्चपब्मट्ठा | तं गच्छं गुणसायर! विसं व दूरं परिहरिज्जा ||४५|| 1. तुलना :- जत्थ य मुणिणो कयविक्कयाई कुव्वंति संजमब्मट्ठ । तं गच्छं गुणसायर! विसं व दूरं परिहरिज्जा ।। - १०३ गच्छाचार पयन्न।
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