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भ्रष्टाचार का पाप
जे बंभचेरभट्ठा, पाए पाडंति बंभयारीणं । ते हुंति टुंटमुंटा, बोही वि सुदुल्लहा तेसिं ॥५५॥ आवश्यक निर्युक्ति गाथा ११०९
ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हुआ साधु, अन्य ब्रह्मचारियों को अपने चरणों में झुकाता है, वह साधु, अगले भव में टुंट मुंट (हाथ से टुंटा, पाँव से लंगड़ा - अपंग) होता है और उसे बोधि-बीज का प्राप्त होना भी कठिन हो जाता है ।। ५५ ।।
बह्मचर्य से भ्रष्ट साधु अपने आपको सर्वत्यागी एवं पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी कहलाकर, दूसरे ब्रह्मचारियों एवं साधुओं को अपने चरणों में झुकाता है, उनका पूज्य बनता है । उपासकों से आदर सत्कार पाता है, किन्तु वह ब्रह्मचारी नहीं है, गुप्तरूप से व्यभिचार का सेवन करता है, तो उस भ्रष्ट साधु का वह पाप, अतिशय अशुभ कर्मबन्धन का कारण होकर दुःखदायक होता है । उस गुरुतर पाप के उदय से अगले जन्म में वह टुंटा, लंगड़ा एवं अपंग होता है । हीनदशा को प्राप्त होता है। उस मायाचारी को फिर बोधिबीज-धर्म का मूल सम्यग्दर्शन का प्राप्त होना भी कठिनतर हो जाता है ।
भ्रष्टाचारी व्यभिचारी का यह पाप कम नहीं है । यह महामोहनीय कर्म बन्ध का कारण है । दशाश्रुतस्कन्ध दशा ९ में भी कहा है कि
अकुमारभूए जे केइ, कुमारभूए त्ति हं वए । इत्थिविसयगिद्धे य, महामोह पकुव्वइ ।।११।। अबंभयारी जे केइ, बंभयारि त्ति हं वए ।
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