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गद्दहे व्व गवं मझे, विस्सरं नयई नदं ।। अप्पणे अहिए बाले, मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए, महामोहं पकुव्वइ ।।१२।।
अर्थात्-जो कुमारभूत-बालब्रह्मचारी नहीं है और स्त्रियों के साथ भोग करने में आसक्त है, फिर भी अपने को कुमारभूतबालपन से ही सर्वथा विषय भोग से वंचित बतलाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।।११।।
जो वास्तव में ब्रह्मचारी नहीं है, किन्तु लोगों में अपने को ब्रह्मचारी के रूप में प्रसिद्ध करता है, वह गायों के झुंड में गधे के समान रेंकने वाला है.। वह मायाचारी छलयुक्त महान् झूठ बोलता हुआ, स्त्री-विषय में लुब्ध रहता हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है ।।१२।। ___ महामोहनीय कर्म बन्ध के उपरोक्त स्थान के उपरांत सातवें महामोहनीय स्थान का भी वह पात्र है, जिसमें
'गूढायारी निगहिज्जा मायं मायाए छायए'
जो गूढाचारी-मायाचारी अपने पाप को माया के द्वारा छुपाकर शुद्धाचारी के रूप में अपने को रखता हुआ धोखा देता रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्धक होता है। __ऐसे दंभियों का दंभ-व्यभिचार सर्वथा छुपा ही रहता है-ऐसी भी बात नहीं है । समझदार उपासक उपासिकाएं, उसकी मर्यादाहीनता देखकर समझ जाते हैं, फिर भी वे सत्त्वहीनता, पक्षपात एवं बखेड़ा खड़ा होने के भय से उपेक्षा करते रहते हैं।
साथी साधुओं की खुद की कमजोरी, शिष्यलुब्धता एवं उपासकों की अशक्ति, उनके व्यभिचार को नहीं रोक सकती।
उस भ्रष्ट अंग को पृथक् करके साधुता एवं वीर धर्म की
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