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हाथ आदि से झाड़ा देकर शारीरिक बाधा दूर करने का डौल) करते हैं ।। ५९ ।।
आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी अपने समय के साधुओं की दुरवस्था एवं असाधुता का परिचय देते हुए कहते हैं कि ये नामधारी साधु, अपनी साधना को भूलकर श्रावक के करने योग्य कर्तव्य स्वयं करने लग गये, जैसे प्रतिमा - मूर्ति की रक्षा करने वाले-रखवारे बन गये और मूर्ति की पूजा करने लग गये। वे आडम्बर का आयोजन करके उत्सव रचाने तथा संगीत मंडली से रसीले भजनों का रंग जमाकर मस्त होकर राग सुनते हैं। पूजन पढ़वाने लगे है। वर्तमान में क्रिया कारक का काम स्वयं मुनि करने लगे है ।
स्थानकवासी परंपरा में भी संस्थाओं की रखवाली और उनके पोषण का जंजाल - कुछ साधुओं को लग गया है । जहाँ जाते हैं, वहाँ अपनी संस्था का पोषण करने का प्रयत्न करते हैं।
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शताब्दि उत्सवों का आयोजन होता है, उसमें संगीत एवं नृत्यादि का कार्यक्रम भी प्रारम्भ हो गया हैं । आडम्बरी प्रवृत्ति में मानपत्र एवं अभिनंदन ग्रंथ के समर्पण का प्रकार विशेष रूप में बढ़ गया है ।
हजामत
सिरतुंडे खुरमुंडं रयहर [ण ] मुहपत्तिधारणं कज्जे । एगागित्तब्भमणं सच्छंदं चिट्ठियं गीयं ॥६०॥
ये मस्तक और मुख पर उस्तरे से मुंडन करवाते (हजामत बनवाते ) हैं । कार्य होने पर रजोहरण और मुखवस्त्रिका धारण करते हैं। अकेले भ्रमण करते हैं। स्वच्छन्द चेष्टा करते हैं और
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