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प्रवृत्ति छुपाकर की जाती होगी, धीरे-धीरे साहस एवं संख्या बढ़ते जाहिर में उपभोग होने लगा होगा। पतन इसी प्रकार होता
दो बार भोजन के सिवाय चाय, दूध और नाश्ता भी बहुतों में साधारण बात हो गई है । विगय सेवन में विवेक रखने वाले आत्मार्थी भी थोड़े रह गये । सुपारी, लवंग आदि का सेवन कई साधु साध्वी करते हैं। जहाँ संयम की परिणति है, वहाँ तो इस प्रकार की अमर्यादित प्रवृत्तियाँ नहीं होती, किन्तु वेशोपजीवी साधुओं में लोलुपता के कारण ऐसी प्रवृत्तियाँ आज भी हो रही
है।
वस्थं दुप्पडिलेहियमपमाणसकल्लियं दुकुलाई । सिज्जोवाणहवाहणआउहतंबाइपत्ताई ||५८।।
वे वस्त्रों की प्रतिलेखना नहीं करते या दुष्प्रतिलेखना (बेगार की तरह-प्रतिलेखना का डौल) करते हैं । अपरिमाणमर्यादा से अधिक तथा सकिर्णक-किनारी वाले ऐसे दुकुलादि (रेशमी आदि) वस्त्र काम में लेते हैं ।।५८।।
जहाँ संयम में रुचि नहीं हो और संग्रहखोरी हो वहाँ सुप्रतिलेखना की संभावना ही कहां रहती है ? आवश्यकता एवं लोभ बढ़ने से संग्रहखोरी होती है और संग्रहखोरी से प्रतिलेखना में बाधा उपस्थित होती है । जब ऐसी स्थिति बढ़ती है, तो दो बार से हटकर एक बार प्रतिलेखना करने के सुझाव प्रस्तुत होते हैं, किन्तु संग्रहखोरी में तो महिनों तक वस्तु अप्रतिलेखित ही पड़ी रहती है। इस संग्रहखोरी में वस्त्र, रंग बिरंगे पात्र, प्याले, 44