________________
कई बार देखा गया कि ग्रामस्थ साधुओं की आवश्यकता के अनुसार भोजन की सामग्री प्राप्त हो चुकी है या एक दो रोटी की आवश्यकता शेष रही है, फिर भी उनसे आग्रह करना और अधिक सामग्री पात्र में डाल देना उचित नहीं है । यह विशेष सामग्री या तो अधिक खाकर या परठकर उठाई जाती है । इससे क्या लाभ होता है ? वस्त्र के विषय में भी कई बार देखा गया कि साधु तो लेने से इन्कार करते हैं, किन्तु भावुक उपासक कुछ न कुछ लेने की जिद्द पर अड़े रहते हैं । ऐसे समय सुसाधु तो उस जिद्द की परवाह नहीं करते, दाक्षिण्यता वश कुछ साधु ले लेते है और संग्रह खोर अपना काम बना लेते हैं।
आहारादि उपयोगी वस्तुओं के अतिरिक्त रुपये, प्लास्टिक के पात्र, मूल्यवान बढ़िया विषयकषायोत्पादक, वस्त्र, मिथ्यात्व अविरति पोषक पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें आदि वस्तुएं तो साधुओं को नहीं देनी चाहिए । कई साधु शरीर नीरोग होते हुए भी च्यवनप्रास, अवलेह और अन्य पौष्टिक दवाएं लेते हैं, कई प्राणिजन्य औषधिए लेकर शरीर पुष्ट बनाते हैं । यदि दाता भक्त विवेक रखे, तो सन्निधि का दोष साधु चाह कर भी सेवन नहीं कर सकते।
आधाकर्मी आहारादि की प्रवृत्ति भी वृद्धि पर है । कई जानबुझकर आधाकर्मी ग्रहण करते हैं । स्थान के लिए तो साधु खुलमखुला उपदेश देकर आरम्भ करवाते हैं । दूर स्थान-दूसरे गांव से वस्तुएं मंगवाते हैं । इस प्रकार कई सहज साध्य नियम भी असंयमी परिणति के कारण पालन नहीं किये जाते ।
आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी के समय में सचित्त जल, फल पुष्पादि का सेवन साधुओं में हो रहा था । प्रारम्भ में ऐसी
-
43