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मंगत
संखडिपमुहे किच्चे, सरसाहारं खु जे पगिण्हंति । भत्तटुं थुव्वंति वणीमगा ते वि न हु मुणिणो ||४२ || संखडी ( - जहाँ बहुत से मनुष्यों के लिए भोजन बनता होजीमणवार) आदि कार्यों में जहाँ रसयुक्त आहार बनता हो, वहाँ जाकर सरस आहार ग्रहण करते हैं और आहार के लिए जो स्तुति, प्रशंसा एवं चाटुकारी करते हों, वे निश्चय ही सुसाधु नहीं, किन्तु वनीपक ( - दीन, भिखमंगा या मंगत ) है ।। ४२ ।।
जिह्वालोलुप में संयम नहीं होता । वह सरस आहार की टोह में रहता है और किसी भी रीति से अपना मनोरथ पूर्ण करने में प्रयत्नशील रहता है । आजकल तो कोई-कोई साधु, अपनी सेवा में गृहस्थों के समूह के साथ वाहन को रखने लग गये हैं । जहाँ जाते हैं, वहाँ भोले उपासकों से उसे सहायता दिलवाते हैं और वह साथी, उनकी इच्छित वस्तु बाजार से ला देता है । किन्तु जो सुसाधु होते हैं, वे तो रूखा-सूखा, अच्छा या बुरा, जैसा मिले वैसा खा लेते हैं और नहीं मिले, तो संतोष धारण कर लेते हैं, किन्तु संयम की रक्षा करते हैं ।
धर्म पिशाच
जोइसनिमित्त अक्खर भुइकम्माई जे परंजंति । अत्तट्ठियसुहहेउ, धम्मपिसाया न ते मुणिणो ||४३||
ज्योतिष, निमित्त, अक्षर और भूतिकर्म आदि विद्याओं की योजना जो अपने सुख के लिए करता है, वह मुनि नहीं, किन्तु धर्म पिशाच है ।। ४३ ।।
ऐसी आत्मा तो धर्म का ढोंग करके अपना स्वार्थ साधती है,
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