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एवं स्वार्थियों को बहकाकर वे कुशीलिए झगड़ा खड़ा करवा देते हैं और समाज का वातावरण बिगाड़ कर अपना उल्लु सीधा करते रहते हैं । वे जानने समझने वालों और शुद्धाचारी मुनियों के विरुद्ध अपने पक्षपातियों को बहकाकर उन्हें अपमानित करने का प्रपंच करते रहते हैं। कुशीलियों की पौबारह अनभिज्ञों और पक्षपातियों में ही होती है । सुज्ञ विचारकों में उनकी पोल नहीं चलती । अत एव आचार्यश्री कहते हैं कि श्रावकों को लब्धार्थ आदि वाला अवश्य होना चाहिए।
यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक होगा कि आगमज्ञान भी योग्यतानुसार दिया जाना चाहिए और वह भी अनुभवियों की सहायता से । अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है । लाभ के बदले हानि हो जाती है । अपेक्षा नहीं समझ सकने या बुद्धि की कमजोरी से अन्यथा समझ कर कई लोगों ने अनर्थ कर डाला है। अत एव साधु हो या श्रावक, योग्यतानुसार सूत्र की योग्यतावाले साधु को सूत्र और अर्थ की योग्यतावाले श्रावक को अर्थ का ज्ञान प्रास करना उचित एवं लाभकारी है ।।२६-२७।। [दर्शन शु. प्र. गाथा ८९-९०]
उन्मार्ग देशक पुच्छंताणं धम्मं तंपि अ न परिक्खिओ समत्थाणं ।
आहारमित्तल्लुद्धा जे उम्मग्गं उवइसंति ||२८||
धर्म का सम्यग् अर्थ पूछने वाले श्रावकों को वे जिह्वालोलुप पासत्थे, उन्मार्ग का उपदेश करते हैं । वास्तव में वे साधु, स्वयं भी धर्म को नहीं जानते ।।२८।। [दर्शन शुद्धिप्र० गा. ९३]
सन्मार्ग का उपदेश, उनकी पोल खोल देता है। इसलिए वे 1. 'चाले सूत्र विरुद्धाचारे, भाषे सूत्र विरुद्ध' उपा. यशोविजयजी कृत ३५० गाथा स्तवन ।