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वेशविडम्बक उदगपाणं पुप्फफलं, अणेसणिज्जं गिहत्थकिच्चाई । अजया पडिसेवंति, जइवेसविडंबगा नवरं ||३०||
वे असंयमी, सचित्तजल, पुष्प, फल, अनेषणीय आहार और गृहस्थ के कार्यों का सेवन करते हैं। इतना होते हुए भी ये विरति से वंचित कुशीलिए, साधु-वेश की विडम्बणा करते हैं ।।३०।। उपदेश-माला ३४९ गाथा
जिनकी रसना वश में नहीं है, जो चटोरे और स्वाद लोलुप हैं, वे काम तो असंयमी गृहस्थ जैसे करते हैं, किन्तु वेश संयमी एवं आदरणीय साधु का रखते हैं। उनका आदर सत्कार केवल वेश के कारण ही होता हैं । मुग्ध लोग तो वेश देखकर ही उन्हें अपने गुरु मान कर विश्वास करते हैं । वेश के नीचे उनके सभी पाप दबे रहते हैं। ऐसे वेश विडम्बक बड़े प्रपंची होते हैं।
गृहस्थवत् जे घरसरणपसत्ता, छक्कायरिऊ असंजया अजया | नवरं मुत्तूण घरं घरसंकमणं कयं तेहिं ||३१||
जो घर में रहने के लिए ही आसक्त हैं, छह काय जीवों के शत्रु हैं, ऐसे असंयमी साधु, अविरत ही हैं । इसमें अन्तर यही है कि उन्होंने एक घर का त्याग करके दूसरे अनेक घर कर लिये है ।।३१।। [उपदेश माला गा. २२०]
जिनकी संसार में रुचि है, आहारादि में लुब्ध हैं, छह काय जीवों का आरम्भ करवाते हैं । वे छह काय जीवों के शत्रु हैं । वे वेश से साधु होते हुए भी वस्तुतः असाधु एवं अविरत ही हैं । विरति का ढोंग
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