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आगमोक्त परम्परा के विरुद्ध प्रचार हो रहा हो और मर्यादा का भंग हो रहा हो, ऐसी स्थिति को चलाते रहना, उसके विरुद्ध सत्य को दबाकर बुराइयाँ बढ़ने देना, तो अधर्म का मार्ग प्रशस्त करना है । ऐसा वे ही कर सकते हैं-जिनके हृदय में धर्मप्रियता न हो, पद, प्रतिष्ठा अथवा पक्ष का मोह हो या फिर कायरता हो । जानते हुए भी बुराइयों की उपेक्षा करना तो दुर्लभबोधिपन को अपनाना है और यह उनके लिए तो विशेष रूप से हानिकारक है कि जो उस बुराई से किसी भी रूप में सम्बन्धित हो ।
कुशीलियों का पक्ष भी हेय जइ अप्पणा विसुद्धो कुन्सीलसंगं पक्खवायं वा । न चयइ पूयाहेऊं, तं दुल्लहबोहियं जाण ||२५|| __ यदि कोई अपने आप में विशुद्ध हो, किन्तु अपनी मान प्रतिष्ठा के लिए उसने कुशीलियों की संगति अथवा पक्षपात किया है और उसे छोड़ता नहीं है, तो उसे दुर्लभबोधि जानना चाहिए ।।२५।। [दर्शनशुद्धि-प्रकरण गाथा ९६]
कुशीलियों की संगति और पक्षपात नहीं छोड़ने का कारण पद, प्रतिष्ठा और मान-सन्मान मुख्य है । इसके मूल में धर्म के प्रति अनुराग की कमी है। यदि धर्म के प्रति दृढ़ अनुराग हो, तो पक्ष या प्रतिष्ठा का मोह सबल नहीं हो सकता।
जब पक्ष या पूजा मोह बढ़ता है, तब धर्म प्रेम दब जाता है और इसके दबने पर कुशीलियों का संग और पक्षपात होता ही है । यह पक्षपात ही दुर्लभबोधि बनाता है । जो प्रियधर्मी होता
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