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उपरोक्त-पार्श्वस्थादि पांचों प्रकार के साधुओं को वन्दना करने वालों की, न तो कीर्ति होती हैं और न उन्हें निर्जरा का फल मिलता है, परन्तु उल्टा कायक्लेश होता है और साथ ही जिनाज्ञा की विराधना करने से कर्म का बंध होता है ।। २० ।। [गु.त.वि.ति.उ. ३ गाथा १०१ ]
( आचार्यश्री कहते हैं ऐसे पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील संसक्त और यथाछन्द-स्वच्छन्दों को वन्दना नमस्कार करने से न तो धर्म होता है, न कीर्ति ही होती है, होता है कायकष्ट और भगवदाज्ञा का लोप । जिससे असंयम की अनुमोदना होकर कर्मों का बन्धन होता है । उत्तराध्ययन के १७ वें अध्ययन में कहा है कि
एयारिसे पंच- कुसील - संवुडे, रूवंधरे मुणिपवराणहेट्ठिमे । अयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव परत्थ लोए ||२०|| अर्थात् ये पांच प्रकार के कुशीलिए, संवर - साधुता से रहित वेशधारी होते हैं। ये वास्तविक साधुओं के बराबर नहीं, किन्तु अधम हैं। वे इस लोक में विष की तरह निन्दनीय हैं। उनका न तो यह लोक ही सुधरता है न परलोक ही सुधरता है। कुशीलियों को वंदन करने में सब से बड़ी हानि यह है कि इससे असाधुता को प्रोत्साहन मिलता है, संस्कृति में गिराव आता है और उत्तम मार्ग, क्षीण होता जाता है। अत एव इससे बचना चाहिए।)
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