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और विद्या मन्त्रादि से आजीविका करना। इस प्रकार से आजीविका करने वाला 'कुशील' है ।।१६।। [गु.त.वि.ति.उ.३ गाथा८९] __ पासस्थाईएसु संविग्गेसु च, जन्थ मिलिई उ । तहि तारिसओ होइ, पियधम्मो अहव इयरो य||१७||
पार्श्वस्थादि में और संविग्नों में जिनके साथ मिले तब उनके जैसा हो जाता है, वह संसक्त है, संसक्त के प्रियधर्मी और अप्रियधर्मि ऐसे दो भेद है ।।१७।।
संसक्त सो संसत्तो दुविहो, देसे सब्वे य इत्थ नायव्यो । अहच्छंदो वि पंचम, अणेगविहो होइ नायव्वो ||१८||
संसक्त भी देश और सर्व भेद से दो प्रकार के हैं, संसक्त के संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट ऐसे दो भेदों का वर्णन अन्य ग्रन्थों में विशेष आता है । और पांचवां यथाच्छन्द (स्वच्छन्द) भी अनेक प्रकार के जानने चाहिए ।।१८।। [गु.त.वि.नि.उ. ३ गाथा ९७-९८]
उस्सुत्तमणुवइटुं, सच्छंदविगप्पियं अणणुवाइ । परतत्ति पवत्ते तिंतिणे य इणमो अहाछंदो ||१९||
उत्सूत्रभाषी, जिस विषय का उपदेश जिनप्रवचन में नहीं हुआ, उस विषय का उपदेश करने वाला, स्वच्छन्द होकर अपनी कल्पनानुसार प्रचार करने वाला, दूसरों को प्रसन्न करने के लिए प्रवृत्ति करने वाला यथाछन्द-स्वच्छन्दी जानना चाहिए ।।१९।। [गु.त.वि.ति.उ. ३ गाथा १००] पासत्थाइवंदमाणस्स, नेव कित्ती न निज्जरा होइ । जायइ कायकिलेसो, बंधो कम्मस्स आणाए ||२०||