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जिनेश्वर प्ररूपित सिद्धांत का परमार्थ ग्रहण किये हुए हैं, जो पांच समिति और तीन गुप्ति से युक्त हैं, ऐसे गुरु मेरे लिये शरणभूत होवें ।।६।। लक्खिज्जइ सो सुगुरू, सद्धाकरणोवएसलिंगेहिं । अनिगृहंतो अप्पं, सव्वत्थ सुसील सुचरित्तो ||७||
ऐसे सुगुरु श्रद्धा, क्रिया, उपदेश और लिंग, इन चार भेदों से पहिचाने जाते हैं। वे अपनी आत्मा के सामर्थ्य को नहीं छुपाकर यथाशक्ति पराक्रम करते हुए उत्तम शील और उत्तम चारित्र से सर्वत्र विचरते हैं ।।७।।
कुगुरु
१ पासत्थो २ ओसल्लो, होइ ३ कुसीलो तहेव ४ संसत्तो । ५ अहच्छंदो वि य एए, अवंदणिज्जा जिणमयम्मि ||४||
१ पार्श्वस्थ २ अवसन्न ३ कुशील ४ संसक्त और ५ यथाछन्द, ये पांच प्रकार के साधु, जैन सिद्धान्त में अवन्दनीय हैं ।।८।।
पार्श्वस्थ सो पसन्थो दुविहो, सब्वे देसें य होइ नायव्यो । सव्वंमि नाणदंसण-चरणाणं, जो उ पासम्मि ||९|| ___ पार्श्वस्थ दो प्रकार के होते हैं-१ सर्व पार्श्वस्थ और २ देश पार्श्वस्थ । सभी क्रियाओं में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पार्श्व (ज्ञानादि में नहीं, किंतु ज्ञानादि के पार्श्व-बगल में रहे। जो अपने ज्ञानादि के घर में नहीं रहकर पड़ोस) में रहे, वे चारित्र से रहित मात्र वेशधारी सर्व पार्श्वस्थ हैं ।।९।। देसम्मि य पासत्थो, सिज्जाहरभिहडरायपिंडं च | नीयं च अग्गपिंडं, भुंजइ निक्कारणे चेव ||१०||
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