Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचाराङ्ग में जानने के अर्थ में आगम शब्द का प्रयोग हुआ है। आगमेत्ता-आणवेज्जा" जानकर आज्ञा करे। लाघवं आगममाणे लघता को जानने वाला। व्यवहारभाष्य में संघदासगणी ने आगम-व्यव का वर्णन करते हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में अवधि, मनःपर्यव और केवल ज्ञान है और परोक्ष में चतुर्दश पूर्व और उनसे न्यून श्रुतज्ञान का समावेश है। इससे भी स्पष्ट है कि जो ज्ञान है वह आगम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों के द्वारा दिया गया उपदेश भी ज्ञान होने के कारण आगम है।
भगवती, अनुयोगद्वार और स्थानाङ्ग में आगम शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ पर प्रमाण के चार भेद किये गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। आगम के भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किए गए हैं। लौकिक आगम भारत, रामायण आदि हैं और लोकोत्तर आगम आचार, सूत्रकृत आदि हैं।
, लोकोत्तर आगम के सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम ये तीन भेद भी किए गए हैं। एक अन्य दृष्टि से आगम के तीन प्रकार और मिलते हैं-आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम। आगम के अर्थरूप और सूत्ररूप ये दो प्रकार हैं। तीर्थंकर प्रभु अर्थरूप आगम का उपदेश करते हैं अत: अर्थरूप आगम तीर्थंकरों का आत्मागम कहलाता है, क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है, दूसरों से उन्होंने नहीं लिया है, किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है। गणधर और तीर्थंकर के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है एतदर्थ गणधरों के लिए वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है, किन्तु उस अर्थागम के आधार से स्वयं गणधर सूत्ररूप रचना करते हैं। इसलिए सूत्रागम गणधरों के लिए आत्मागम कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही प्राप्त होता है, उनके मध्य में कोई भी व्यवधान नहीं होता। इसलिए उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है, किन्तु अर्थागम तो परम्परागम ही है। क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्मगुरु गणधरों से प्राप्त किया है। किन्तु यह गणधरों को भी आत्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गणधरों के प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य और प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ परम्परागम हैं।११
१. आचारांग १/५/४ ज्ञात्वा आज्ञापयेत् २. आचारांग १/६/३ लाघवं आगमयन् अवबुध्यमानः ३. व्यवहारभाष्य गा. २०१ ४. भगवती ५/३/१९२ ५. अनुयोगद्वार ६. स्थानाङ्ग ३३८, २२८ ७. अनुयोगद्वार ४९-५० पृ. ६८, पुण्यविजयजी सम्पादित, महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित ८. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे य अत्थागमे य तदुभयागमे य। -अनुयोगद्वारसूत्र ४७०, पृ. १७९ ९. अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे य। -अनुयोगद्वारसूत्र ४७०, पृ. १७९ १०. (क) श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गा. ११२
(ख) आवश्यकनियुक्ति गा. ९२ ११. तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स परंपरागमे तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे णो अणंतरागमे, परम्परागमे।
-अनुयोगद्वार ४७०, पृ० १७९
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