Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२४
तीर्थंकर चरित्र
मेरे मन में इन्द्र के साथ संभोग करने की दुष्ट इच्छा चल रही है । यह बात मैं अपने मुँह से निकालूं ही कैसे ?"
राजा ने उसे समझाया -- " देवी ! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं । यह गर्भस्थ जीव का प्रभाव है और इस इच्छा की पूर्ति में स्वयं इन्द्र बन कर कर दूंगा ।" विद्या के बल सहस्रार स्वयं इन्द्र बन गया और रानी की इच्छा पूर्ण की। गर्भकाल पूर्ण होने पर पुत्र का जन्म हुआ। दोहद के अनुसार उसका नाम 'इन्द्र' रखा । यौवनवय आने पर राजा ने राज्य का भार, इन्द्र को दे दिया और स्वयं धर्म की आराधना करने लगा । इन्द्र ने सभी विद्याधर राजाओं को अधिनस्थ बना लिया और स्वयं अपने आपको शक्ति सामर्थ्य एवं अधिकार आदि से इन्द्र ही मानने लगा। उसने देवेन्द्र की भांति चार लोकपाल, सात सेना, सात सेनाधिपति तीन परिषद्, वज्र, आयुध, ऐरावत हाथी, रंभादि वारांगना, बृहस्पति नाम ar मन्त्री और नैगमेषी नामक सेनानायक स्थापित किये। इस प्रकार वह इन्द्र के समान अखंड राज करने लगा । उसका प्रताप और अहंकार, लंकापति माली नरेश सहन नहीं कर सका । उसने इन्द्र पर चढ़ाई कर दी । युद्ध में माली की मृत्यु हुई । इन्द्र ने लंका पर अधिकार करके विश्रवा के पुत्र वैश्रमण को राज्याधिकार दे दिये । माली का भाई सुमाली परिवार सहित पाताल - लंका में चला गया ।
रावण कुंभकर्ण और विभीषण का जन्म
पाताल - लंका में रहते हुए सुमाली को प्रीतिमति रानी से ' रत्नश्रवा' नाम का एक पुत्र हुआ । यौवन-वय में रत्नश्रवा विद्या की साधना करने के लिए कुसुमोद्यान में गया और एकान्त में स्थिर एवं अडिग रह कर जप करने लगा। उसी समय एक विद्याधर कुमारी, पिता की आज्ञा से वहां आई और कहने लगी; -- में " मानवसुन्दरी' नाम की महाविद्या हूँ और तेरी साधना से तुझे सिद्ध हो गई हूँ ।" रत्नश्रवा ने विद्या सिद्ध हुई जान कर साधना समाप्त कर दी और देखा कि उसके सामने एक सुन्दर कुमारी खड़ी है । रत्नश्रवा ने उसका परिचय पूछा। वह बोली ; --
"मैं कौतुकमंगल' नगर के ' व्योमबिन्दु' विद्याधर राजा की पुत्री हूँ । कौशिका नाम की मेरी बड़ी बहिन, यक्षपुर नरेश ' विश्रवा' की रानी है । उसके 'वैश्रमण' नाम का पुत्र है वह इन्द्र की अधिनता में लंका नगरी में राज कर रहा है । मेरा नाम 'कैकसी ' है । भविष्यवेत्ता के कहने से मेरे पिता ने मुझे तुम्हारे पास भेजी है ।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org