Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
उदधिकुमार जाति का देव हुआ। अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव को जान कर वह तत्काल मुनिवर की वन्दना करने आया। उसने देखा कि राजा के सुभट, वानरों का संहार कर, वानर जाति को ही निःशेष कर रहे हैं। वह क्रुद्ध हुआ और तत्काल महावाानर के अनेक रूप बना कर तडित्केश के सुभटों पर बड़े-बड़े पत्थरों की वर्षा करने लगा। राजा ने विचार किया--'यह सब देव-प्रभाव है। अन्यथा वानर ऐसा नहीं कर सकते।' इस प्रकार विचार कर तडित्केश ने महावानर को प्रणाम किया, वन्दना और अर्चना की। देव प्रसन्न हुआ। उसने कहा--' मैं वही वानर हूँ, जिसे आपने थोड़ी देर पहले बाण मार कर घायल किया था। मेरा शव अभी भी ऋषिश्वर के निकट पड़ा है। मैं मुनिश्वर की कृपा से देव हुआ और उनकी वन्दना करने आया था। जब मैंने देखा कि आप वानर-संहार करने लगे हैं, तभी मैने उपद्रव किया ।" इस प्रकार अपना परिचय दे कर देव चला गया। राजा, मुनिराज की वन्दना करने गया। उपदेश सुन कर वानर के प्रति अपने द्वेष का कारण पूछा । मुनिराज विशिष्ठ ज्ञानी थे। उन्होंने उपयोग लगा कर कहा--
"तुम पूर्वभव में, श्रावस्ति नगरी में 'दत्त' नाम के मन्त्री-पुत्र थे और वानर, काशी में पारधी था । तुम प्रवजित हो कर काशी नगरी में प्रवेश कर रहे थे, उधर से वह वन में पशुओं को मारने जा रहा था । तुम्हें सामने आते देखा और अपशकुन मान कर ऋद्ध हो गया। उसने तुम पर प्रहार करके गिरा दिया। तुम शुभ भावों में मृत्यु पा कर महेन्द्रकल्प नाम के चौथे स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से च्यव कर यहाँ लंकाधिपति हुए । वह लुब्धक पारधी मर कर नरक में गया और वहाँ से आ कर वानर हुआ। पूर्व वृतांत सुन कर राजा विरक्त हो गया अपने पुत्र सुकेश को राज्यभार और राक्षस द्वीप का अधिपत्य दे कर प्रवजित हो कर मोक्ष गया। घनादधि भी किष्किधकुमार को वानर द्वीप का अधिपत्य दे कर प्रवजित हो मुक्त हो गया।
वैताढ्य पर्वत पर रथनुपुर नगर में 'अशनिवेग' नाम का विद्याधर राजा राज करता था। उसके 'विजयसिंह' और 'विद्युद्वेग' नाम के दो महापराक्रमी पुत्र थे। उसी बताढ्य पर्वत पर आदित्यपुर नगर में 'मन्दिरमाली' नाम का विद्याधर राजा था । उसके श्रीमाला नामकी पुत्री थी। उनके लग्न करने के लिए राजा ने स्वयवर-मण्डप की रचना की । अनेक विद्याधर राजा उस आयोजन में सम्मिलित हुए। श्रीमाला मण्डप में आई और प्रत्येक राजा का परिचय पा कर आगे बढ़ती हुई किष्किन्ध नरेश के पास रुक नई और उनके गले में वरमाला डाल दी। यह देख कर विजर्यासह को असह्य क्रोध आया।
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