Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
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नित्यहेतुककूटस्थाकारणत्वनिवृत्तये " यह पाठ साधु जचता है जैसे कि " तन्निसर्गादधिगमाद्वा इस सूत्र के अवतरण में ग्रन्थकारने सम्यग्दर्शनके हेतुओंका निरूपण करते हुये नित्यपन, नित्य हेतुकपन, और अहेतुपनकी व्यावृत्ति कर दी है बन्धके व्यक्तिरूपसे कदाचित् कारणों का प्रतिपादन कर देनेसे नित्य हेतुकपनकी व्यावृत्ति हो जाती है, ऐसी दशा में बन्ध की सर्वदा ही क्वचित् हो रहे उत्पत्ति नही होती रहती है किन्तु नियत कारणों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकारके न्यारे न्यारे ( बदल बदल कर ) कर्मबंध होते रहते हैं तथा कारणों के कहदेनेसे बंधके कूटस्थपन यानी नित्यपनकी व्यावृत्ति हो जाती है । अकारणपनकी निवृत्ति हो जाती तो कारणोंके निरूपण का फल प्रसिद्ध ही है । छठे और सातवें अध्यायोंमें आस्रव का निरूपण करते हुये सूत्रकारने एक प्रकार से बंधके हेतुओं को कहा है, तभी तो इन पांचों की क्रिया जो आदिमें निरूपण किया जा चुका कह दिया जायगा | यहां क्रियाभेदसे उनको कहा जाता है ।
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मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेत्वः ॥ १ ॥
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बन्धके कारण हैं । अर्थात् तत्त्वार्थीका श्रद्धान नहीं कर अन्य देवताओंकी स्तुति करना, कर्मफल चेतना में आकुलित रहना, आदि मिथ्यादर्शन हैं । व्रतोंके प्रतिकूल हो रही छह कायके जीवोंकी रक्षा नहीं करना और छह इन्द्रियोंका असंयम रखना स्वरूप अविरति है । पुण्यसंपादक अथवा विशुद्धि वर्धक कुशल कर्मों में आदर नहीं करना प्रमाद कहा जाता है । आत्मावी स्वाभाविक परितियों को कषने वाली अनन्तानुबन्धी आदि कषायें प्रसिद्ध ही हैं । आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द हो जाना योग है । पहिले गुणस्थान मे तेरह योग पाये जाते हैं । आहारककाययोग और आहारक मिश्र काययोग छठे गुणस्थान मे ही सम्भवते हैं । यो संसारी जीवों के ये पांच बन्धके कारण हैं । पहिले के होनेपर पिछले समस्त कारण अवश्य पाये जाते हैं। भेद प्रभेदोंकी अपेक्षा करनेपर तो व्यस्त रूपसे भी कारण हो जाते हैं जैसे कि पांचवे गुणस्थान मे स्थावर जीवोंकी अविरति है, किन्तु जागृत अवस्था में निद्रा प्रमाद नहीं हैं । अथवा सामायिक करते हुये श्रावक के विकथायें भी नहीं हैं, अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय नहीं है, आहारक, आहारकमिश्र, औदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण ये छ: योग नहीं पाये जाते हैं ।
मिथ्यादर्शनं क्रियास्वन्तर्भूतं विरति प्रतिपक्ष भूताप्यविरतिः । आज्ञाव्यापादनानाकांक्ष क्रियायामंतर्भावः प्रमादस्य, कषायाः क्रोधादयः प्रोक्ताः, योगाः कायादिविकल्पाः प्रक्लृप्ताः । मिथ्यादर्शन आदि पांचों कारणोंको पहिले कहा जा चुका है। देखिये मिथ्यादर्शन
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