Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अथ अष्टमो अध्यायः ॥
अव इसके अनन्तर आठवें अध्यायका प्रारंभ किया जाता है । अथ बंधेऽभिधातव्येऽभिधीयतेस्य हेतवः । निर्हेतुकत्व कूटस्था कार णत्वनिवृत्तये ॥ १ ॥
आठवें अध्यायका अवतरण इस प्रकार है कि जीवादि सात तत्त्वोंका अधिगम करानेवाले इस तत्त्वार्थाधिगम ग्रन्थ में सात अध्यायोंतक जीव, अजीब और आस्रव इन तीन तत्त्वोंका निरूपण किया जा चुका है। अब संगति अनुसार बंध तत्त्वका प्ररूपण करना योग्य है । तहाँ प्रथम बंधके हेतुरहितपन, कूटस्थपन और अकारणपन की निवृत्ति करनेके लिये इस Sahara कहा जाता है । अर्थात् अवसर संगति अनुसार आम्रव तत्त्वके अनन्तर बंध तत्वका कहना समुचित है । वह बंध अकस्मात् तो नहीं हो गया है । अन्यथा मोक्ष भी किसी नियत कारणके विना ही चाहे जब हो जायेगी । संवर और निर्जराके कारणोंकी पुरुषार्थपूर्वक योजना करना व्यर्थ पड़ेगा । अतः बंधके लक्षणको छोडकर प्रथम ही बंधके कारणको कहा जाता है क्योंकि कारण पहिले होता है कार्य पीछे होता है । पहिले कारणोंकी प्रतिपत्ति हो जाने पर कार्यकी प्रतिपत्ति झटिति ही सुलभतया हो जाती हैं । अतः सूत्रकार कारणों को अग्रिम सूत्र द्वारा कह रहे हैं। जो कि कारणों का निरूपण कर देना तीन इतर व्यावृत्तियों को साधता है बंधके मिथ्यादर्शन आदि पांच कारण है, अतः बन्ध सकारणक है हेतुरहित नहीं है, अथवा बंधका ज्ञापक हेतु विद्यमान है । मिथ्यादर्शन आदि करके अनुमान द्वारा बंधको साध लिया जाता है । तथा बहुव्रीहिमें क प्रत्यय करनेपर निर्हेतुक शद्वसे यह भी किसीका हेतु हैं जो कारणोंसे उत्पन्न होता है वह उत्तरवर्ती पर्यायोंको भी उप जाता है ।
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