Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ सिरिवालचरिउ (१) तैलं रक्षं जलं रक्ष रक्षं शिथिलबन्धनम् । मुक्तहस्तेन दातव्यं एवं वदति पुस्तकम् ॥ ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं नित्यं निाधि भेषजाभवेत् ।। “शुभं भूयात्"। पाण्डुलिपिकार पण्डित वीरसिन्धु का कहना है कि उन्होंने वि. सं. १५९४ ( ईसवी १५३७ ) भादों वदी रविवारको यह समाप्त की। उस समय सुलतान मीर बाबरका राज्य था और कालपीमें आलमशाही की हुकूमत थी। उसके अन्तर्गत दौलतपुरमें इसे समाप्त किया। श्री मूलसंघ बलात्कार गण सरस्वतीगच्छ । कुन्दकुन्दाम्नाय । उसके अन्तर्गत भट्टारक श्री पद्मनन्दी देव जिनचन्द्र देव । उसके आम्नायमें लम्बकंचुक वंशके महेशने कर्मक्षयके लिए यह शास्त्र लिखाया और पण्डित वीरसिन्धुने इसे लिखा। ['ख' प्रति ]-दूसरी 'ख' प्रति का आकार है-लम्बाई ११ इंच और चौड़ाई ४ इंच, गहरी काली स्याही। लिखावट 'क' प्रति-जैसी सुन्दर नहीं है, एक-सी भी नहीं है। 'वर्तनी में अपेक्षाकृत अधिक अनियमितताएँ हैं । पाण्डुलिपिकारकी प्रशस्ति इस प्रकार है __संवत् १५७९ वर्षे मागसिर मासे द्वैजदिवसे, बुधवारे रोहिणी नक्षत्रे, सिद्धनामजोगे, टौंकपुरनाम नगरे, पार्श्वनाथ चैत्यालये श्रीमूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये, तस्य पट्ट श्री पद्मनन्दिदेव तस्य पट्टे श्री शुभचन्द्रदेव, तस्य पढ़े भट्रारक श्री जिनचन्द्र देवाः तस्य पढ़े भ. प्रभाचन्द्र देवाः । तदाम्नाये खण्डेलवालन्वये । टौंग्या गोत्रे ।। सन्धरम सी । तस्य भार्या पातु । तयो पुत्र चत्वारि । प्रथम पुत्र संती कै ।। तस्य भार्या गल्ली। तत्पुत्र हामा। दुतीय पुत्र जाल्हा। तृतीय पुत्र नेता । श्रीवन्त साह हामा। तस्य भार्या सोना। तत्पुत्र तेजसी । साह जाल्हा । तस्य भार्या पद्मा। तत्पुत्र सहसमल्ल साह नेता । तस्य भार्या ऊदी। तत्पुत्र चुचमल्ल । द्वितीय पुत्र पद्मसी। तृतीय पुत्र रणमल : सं. लाषा। तस्य भार्या रोहिणी। तत्पुत्र गुणराज । दुतीय कारु । ततीय साह रामदास । तस्य भार्या रयणादे, तत्पुत्र साह कुन्त । तस्य भार्या धरम । तत्पुत्र गोइन्दे । साह वस्तु । तस्य भार्या नीक । साह नीक । साह डुंगर । तस्य भार्या षेतु । तत्पुत्र चाणा। तस्य भार्या चादण दे। एतेसां मध्ये इदं शास्त्रं लिषायतं । श्रीपाल चरित्रं । वाई पदमसिरि जोग्य दातव्यं । ज्ञानवान ज्ञान दानेन निर्भयो । भयदानतः अन्नदानात् सुषी नित्यं नियाधि भेषजा भवेत् । शुभं भवतु । _ 'ख' प्रति इस प्रकार टौंक ( राजस्थान ) में लिखी गयी वि. सं. १५७९ ( ईसवी १५२२) मगसिर द्वितीया को पार्श्वनाथ चैत्यालय में साह डूंगर, उसकी पत्नी खेतू, उसका पुत्र चाणा, उसकी पत्नी चादन दे, इनके बीच यह शास्त्र लिखा गया । लिखनेवाले ने अपना नाम नहीं दिया। इस प्रति की विशेषता यह है कि इसके कई पाठोंसे आधारभूत पाठोंको समझनेमें बहुत बड़ी सहायता मिली। ['ग' प्रति]-"ओं' वीतरागाय” से प्रारम्भ होती है। दोनों सन्धियोंकी कड़वक संख्या अलग-अलग है। पहलीमें ४६ कड़वक हैं जबकि दूसरीमें ३६ । पहली सन्धिकी समाप्तिपर निम्नलिखित उल्लेख है : “इय सिद्धि-चक्क-कहाए महाराय सिरिपाल मयणासुन्दरि देविचरिए, पंडितसिरिणरसेण विरइए इह लोय परलोय सुहफल-कराए रोर-घोर कोढ़वाहि भवानुभव-णासणाए मयणासुन्दरि-रयण मजूसा गुणमाला-विवाह-लाभो णाम पढमो संधि परिछेओ समत्तो।" अन्तिम प्रशस्ति है “अथ प्रसस्ति लिख्यते । यथा ग्रन्थ संख्या ९२५ अथ संवत्सरे नृपति विक्रमादित्य राज्ये । संवत् १५९० वर्षे, माघ वदि आठ बुधे, श्रीमूल संघे बलात्कार गणे, सरस्वती गच्छे, कुंदा कुंदा चार्चानुये, भट्टारक श्रीपद्मनंदीदेव तत्पट्टे, भट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेव तत्पट्टे, भट्टारक श्रीजिनचन्द्रदेव तत्पट्टे ।" भा. पृ. ४८ अन्तिम प्रशस्ति अधूरो होनेके कारण प्रशस्तिकारके विषयमें कुछ भी जानकारी नहीं मिलती । कुल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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