Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 48
________________ सामाजिक-चित्रण (३) भाग्यपर आश्रित होकर 'सिरिवालचरिउ' में रत्नमंजूषा और गुणमालाका विवाह अनोखे ढंगसे होता है । रत्नमंजूषाका पिता कनककेतु, गुरुसे पूछता है-“यह कन्या ( रत्नमंजूषा) किसको दी जाये ?" मुनि उत्तर देते हैं"सहस्रकूट जिनमन्दिरके वज्र किवाड़ोंको जो खोल देगा, उसीके साथ इसका विवाह कर देना।" श्रीपाल उन किवाडोंको खोल देता है और उसीसे रत्नमंजषाका विवाह कर दिया जाता है। पराने समयमें स्वयंवरमें ऐसी शर्ते रखी जाती थीं। परन्तु यहाँ ऐसा स्पष्ट नहीं है कि राजा कनककेतुने सब दूर यह खबर पहुँचायी हो कि किवाड़ोंको खोलनेवालेके साथ लड़कीका विवाह करेगा। गुणमालाके पिता धनपालको भी मुनिने बतलाया था कि जो हाथोंसे जल तैरकर आयेगाा, उससे इसका विवाह कर देना । संयोगसे श्रीपाल ही आता है जिससे गुणमालाका विवाह कर दिया जाता है। "मुणि उत्तउ जु तरइ जलु पाणिहिँ । वसइ णरिंद-गेह तहे पाणिहि ॥” (१।४६) (४) प्रतियोगिता या स्वयंवर द्वारा मकरकेतुकी कन्या चित्रलेखाके साथ विवाह करनेके लिए यह शर्त रखी थी कि जो नगाड़ा बजाकर उनको ( चित्रलेखा, जगरेखा, सुरेखा, गुणरेखा, मनरेखा आदि ) जीत लेगा और १०० कन्याओंके साथ गायेगा, हावभाव से युक्त होकर वह उन सबसे विवाह करेगा । श्रीपाल नगाड़ा बजाकर उन्हें जीत लेता है । (२।९) (५) समस्यापूर्ति द्वारा कोंकण द्वीपके राजा यशोराशिविजयकी आठ कन्याओंके साथ विवाह करनेकी शर्त यह थी कि उनके प्रश्नोंके उत्तर जो दे देगा उसके साथ उनका विवाह कर दिया जायेगा। श्रीपाल उनके उत्तर दे देता है। वैवाहिक पद्धति 'सिरिवालचरिउ' में वर्णित विवाहकी पद्धति भी लगभग उसी प्रकार की है जो आजकल हमारे देशमें प्रचलित है। विवाह निश्चित करनेके लिए ज्योतिषियोंसे शुभ-तिथिके लिए पूछा जाता है। ज्योतिषी ही लग्नकी तिथि निश्चित करते हैं। मैनासुन्दरी, रत्नमंजूषा और गुणमालाका विवाह शुभ वेला और लग्न में हुआ, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है । मैनासुन्दरीके विवाहके लिए ज्योतिषियोंसे शुभ लग्न पूछता है । ( १।१२) रत्नमंजूषाके विवाहमें भी उल्लेख है "पुणु सुह-वेल लगुण परिठ्ठवियउ ।” (१।३६) गुणमालाके विवाह में "सुह-वेलग्गह गुणमाल-सुय । सिरिवालहो दिण्णी मुसलभुय ॥” (१।४७) बन्दनवार बाँधना, मण्डप बनाना, तोरण बाँधना, मृदंग व बाजे बजाना, मंगलगीत गाना, दुल्हादुलहिनका श्रृंगार करना, रेशमी वस्त्रोंसे वर-वधको सुसज्जित करना, वेद पढ़ना, हवन करना, मंगलोंका उच्चारण करना, मुकुट ( मोर ) बाँधना, हाथमें कंगन पहनाना, अंगूठी पहनाना, गले में हार पहनना, नाचगाने होना, चवरी (भाँवरें) और सात फेरे ( सप्तपदी ) दिलाना, हरे बाँसका मण्डप बनाना, दुलहेको गा १. ११३२ और १३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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