Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 146
________________ ८३ २. ३५. ४] हिन्दी अनुवाद कुटुम्बियोंका निमन्त्रण करें। उद्यापनमें सतीजनोंकी पूजा करे तथा विनयभाव धारणकर भव्यक्त करे। श्रीमतीके पतिने यह सुनकर तुरन्त सिद्धचक्र विधि अंगीकार कर ली। उसने चार वर्ष तक सम्पूर्ण रूपसे व्रत किया । श्रीमतीके ही समान आचरण कर अन्त समयमें संन्यास ग्रहणकर, पाँच णमोकार मन्त्र और जिन भगवानका ध्यान कर. स्वर्गसे होकर फिर वहाँसे च्यत होकर, वहीं तुम राजा श्रीपाल उत्पन्न हुए। श्रीमती भी स्वर्गमें जाकर वहाँसे च्युत होकर आयी है। वहीं मदनासुन्दरीके रूपमें तुम्हारी भार्या हुई है। घत्ता-यह जान कर हे पृथ्वीके परमेश्वर, जो सिद्धचक्र विधान करता है वह मुनिवरों द्वारा कथित और पण्डितोंके द्वारा प्रकाशित भव समुद्रको खेल खेलमें तर लेता है ।।३३।। ३४ फिर तुमने जो पूर्व जन्ममें पाप किया, इसी बीच वह सब भी नष्ट हो जाता है। यह जानकर अपने दुःखोंका हरण कर लो। अहिंसामूलक धर्मकी शरण जाओ। इस प्रकार धर्मके समस्त विश्वसारको सुनकर उसने त्रिगुप्ति मुनिकी वन्दना की। श्रीपालने फिर व्रतका उपवास किया। जाकर नगरमें इसका प्रचार किया। श्रेष्ठ बनियों और राजपुत्रोंने इसे बहुत सम्मान दिया। उन्होंने सिद्धचक्र विधिको प्रधानता प्रदान की। आठ हजार अन्तःपुरने यह व्रत धारण किया, सुन्दर सहृदयजनोंने जिनके पैरोंमें नूपुर थे, ऐसी सुन्दरी मंजूषा और गुणमालाने भी, सुविलासिनी बाला चित्रलेखाने भी सौभाग्यगौरी, शृंगारगौरी, पद्मलोमा, सुन्दरी पद्मा आदि आठ हजार अन्तःपुरके साथ यह व्रत किया। सबने सिद्धचक्र व्रत ग्रहण किया। चित्र-विचित्रकुमारोंने भी सिद्धचक्र विधि ग्रहण की। आदरणीय कण्ठ और सुकण्ठने भी। विजयसेनके सुलक्षण पुत्रोंने। विचक्षण सुशील गन्धर्वने भी। ठाणा-कोंकणके गुणी कुमारने और स्नेही हिरण्य बन्धुओंने भी। मकरकेतुके प्रिय पुत्रोंने जीवन्ती सुन्दरके कुमारों ने। श्रीपालके प्रधान अंगरक्षकोंने और सातसौ राजाओंने व्रत लिये। उज्जैनके पयपाल राजाने वहाँ सिद्धचक्र व्रत लिया। घत्ता-गूजर, मराठा, सौराष्ट्र, खस, बब्बरोंको भी व्रत पसन्द आये। जो नर-नारी निःशंकभावसे इसकी रक्षा करते हैं, वे मनोवांछित फल पाते हैं ॥३४॥ जिनशासनका भक्त श्रीपाल भी चम्पानगरीमें राज्य करने लगा। बारह हजार इसके पास गजसमूह था, उतने ही खच्चर और ऊँट भी थे। बारह लाख उसके पास घोड़े थे और बारह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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