Book Title: Siriwal Chariu
Author(s): Narsendev, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 98
________________ १.६४. ६ ] हिन्दी अनुवाद सावनके मेघोंके समान थे निर्मल और पवित्र चित्तवाले। उन्होंने उपकारसे संसारको ढक लिया। उनका चित्त मोती और कपासके समान स्वच्छ था । एकका नाम चित्र था और दूसरेका विचित्र । उनका चित्त एक पलके लिए साहस नहीं छोड़ता था। तीसरी बेटी थी-रत्नमंजूषा । शीलके आभूषण वाली जो गम्भीर पुत्री थी। वह स्नेह और रूपकी सुन्दर अर्गला थी। उसके दोनों नेत्र ऐसे थे मानो शुक्र तारे हों। एक दिन राजा कनककेतु फूल लेकर जा रहा था। गुरुके चरणोंकी पूजा करनेके लिए जिनमन्दिर जा रहा था। उसने गुरु महाराजसे पूछा- “यह कन्या किसको दी जाये ? हे स्वामी कृपया बताइए।" मुनि बोले-“सहस्रकूट जिनमन्दिर है, जो अनायास पाप समूहको नष्ट कर देता है। उसके वज्र-किवाड़ोंको जो खोल देगा उसीके साथ हे राजन्, कन्याका विवाह कर देना। दूसरी बात नहीं हो सकती।" पत्ता-यह बात जानकर राजाने मनमें निश्चय कर लिया। उसने द्वारपाल बैठा दिया, और बोला-जो आकर ये किवाड़ खोले, उसको खबर मुझे देना ||३२।। यह कहकर राजा अपने घर चला गया। उसका हृदय एक क्षणके लिए भी पापमें रमता नहीं था। यहाँ वणिकपुत्र भी नगरके भीतर गये। जहाँ बाजारमें मणि और रत्न भरे पड़े थे। जो समुद्रकी लहरोंसे आकुल तटकुल ऐसा लगता है मानो विपुल लक्ष्मीका तट हो। जहाँ जैनोंकी वैश्याटवी ( बाजार ) शोभित है। वहाँ वेश्यालयमें कोई भी नहीं जाता। स्त्रियाँ जहाँ नियमसे निकलती हैं। परमेश्वरके समान जिसमें मेघ गरजते हैं । जिसमें परस्त्रीको देखना दण्डित समझा जाता है। लोग परस्त्री देखना सहन नहीं करते। जहाँ मधुर ( मीठा ) बोला जाता और खाया जाता है, परन्तु जो मधुर (शराब) न तो देते हैं और न छूते हैं। जिसकी सीमाओं पर असंख्य मालाकार हैं, परन्तु अपनी सिद्धिके लिए हलचल नहीं है। जहाँ नगरमें कुँए और बहुत सी बावड़ियाँ हैं.... अर्थ स्पष्ट नहीं है-जहाँ वनमें पक्षि निडर विचरण करते हैं, और श्रावक देव, शास्त्र और गुरु की भक्तिमें लीन हैं। भ्रमर मधुमाह ( वसन्त ) में मदसे छक जाते हैं लेकिन लोग मधुमाहमें निर्मद और विरक्त होते हैं । व्यापारी श्रीपालके पास निवास करते हैं । मैं ( कवि ) बहुत क्या कहूँ और श्रीपालको क्या सिखाऊँ ? घत्ता-वहाँ भी अत्यन्त सुकुमाल श्रीपालका नियम था। उस नगरमें जो चैत्यालय था. उसके दर्शन और स्पर्शके बिना वह भोजनको हाथ नहीं लगाता था ।।३३।। ४ उसने आकाशको चूमनेवाले जिनमन्दिरको देखा। जिसके दर्शन मात्रसे पापका समूह नष्ट हो जाता था । अण्ड' दण्ड और सुवर्णसे निर्मित वह लाल मणि और पन्नोंसे जड़ा हुआ था। शुद्ध स्फटिकमणियों-मूंगोंसे सजा हुआ। राजपुत्रोंने उस पर बड़े-बड़े मणि लगा रखे थे। वह सूर्यकान्त और चन्द्रकान्त मणियोंसे शोभित था। उसका मध्यभाग गज-मोतियोंसे चमक रहा था। उसमें श्रमणोंकी सभा गरुड़के आकारकी बनी हुई थी। उसके चारों ओर इन्द्रनील मणि लगे हुए थे। उसकी श्रेष्ठ पंक्तियाँ ( आवलसार ) गोमेद रत्नोंसे जड़ी हुई थीं। पुष्कर, गवय, गवाक्ष आदि १. मछली की आकृतिका दण्ड था, जो स्वर्णसे जड़ित और पद्मराग तथा पन्नोंसे जड़ा हुआ था ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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